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श्री मालारोहण जी तत्त्व की (बहुभक्ति) बहुत भक्ति, समर्पण भाव से (जुक्तं) युक्त होकर (साध) साधना करो।
अर्थ - शुद्धात्म तत्त्व शुद्ध प्रकाशमयी समस्त संकल्प-विकल्पों से रहित, रत्नत्रय से अलंकृत अपना ही परमात्म स्वरूप है। ऐसे प्रयोजन भूत शुद्धात्म तत्त्व की बहुत भक्ति युक्त होकर साधना करो। प्रश्न १- ज्ञानी अपने सत्स्वरूप की साधना किस प्रकार करता है? उत्तर - शुद्धात्म तत्त्व परम प्रकाशमान केवलज्ञान ज्योति स्वरूप लोकालोक प्रकाशक है। समस्त
संकल्प-विकल्पों से रहित है अर्थात् मन में होने वाले भावों से मुक्त, रत्नत्रयमयी परम ब्रह्म परमात्म स्वरूप है, भेदज्ञान पूर्वक ऐसा सत्श्रद्धान ज्ञान करके ज्ञानी अपने सत् स्वरूप की
बहुत भक्ति युक्ति पूर्वक साधना करता है। प्रश्न २- ज्ञानी साधक की अंतरंग साधना किस प्रकार वृद्धिंगत होती है? उत्तर - ज्ञानी अंतरंग में चैतन्य मात्र वस्तु को देखता है और शुद्धनय के आलम्बन द्वारा उसमें एकाग्र
होकर अपने परम तत्त्व का अनुभव करता है, जिससे उसके समस्त आस्रव भावों का अभाव होता है और त्रिकालवर्ती पदार्थों को जानने वाला केवलज्ञान प्रगट हो जाता है । इस प्रकार
ज्ञानी की साधना उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होती हुई पूर्णता को प्राप्त होती है। प्रश्न ३- शुद्धात्म तत्त्व की अनुभूति हुई यह कैसे जानें ? उत्तर - स्वानुभूति होने पर -१.शुद्धात्मा ज्ञान प्रकाश रूप अनुभव में आता है। २. संकल्प-विकल्पों
से रहित निर्विकल्प अवस्था होती है। ३. रत्नत्रय मय अभेद अवस्था होती है। ४. अनुभूति के काल में देह का कोई भी भान नहीं रहता है। ५. पर द्रव्य, संयोग और संयोगी भावों का बोध
नहीं रहता है। प्रश्न ४- अनुभव किसे कहते हैं? उत्तर - पं. श्री बनारसीदास जी ने अनुभव का स्वरूप नाटक समयसार में इस प्रकार कहा है -
वस्तु विचारत ध्यावतें, मन पावे विश्राम |
रस स्वादत सुख ऊपजै,अनुभव ताको नाम || प्रश्न ५- शुद्धात्म तत्त्व इन्द्रिय गम्य क्यों नहीं है? उत्तर - शुद्धात्म तत्त्व स्पर्श, रस, गंध और शब्द से रहित निरंजन है इसलिये किसी भी इन्द्रिय द्वारा
ग्रहण नहीं किया जा सकता। स्वानुभव प्रत्यक्ष से ही जाना जा सकता है, इस कारण शुद्धात्म तत्त्व इन्द्रिय गम्य नहीं है।
गाथा-१६ चैतन्य लक्षण मयी धर्म की अतिशय महिमा जे धर्म लीना गुन चेतनेत्वं, ते दुष्य हीना जिन सुद्ध दिस्टी।
संप्रोषि तत्वं सोइ न्यान रूप, ब्रजति मोय पिनमेक एत्वं ॥ अन्वयार्थ - (जे) जो जीव (गुन चेतनेत्व) चैतन्य गुण मयी (धर्म) स्वभाव में (लीना) लीन होते हैं (ते) वे (दुष्य हीना) दु:खों से रहित (जिन) अन्तरात्मा (सुद्ध दिस्टी) शुद्ध दृष्टि हैं (न्यान रूप) ज्ञान स्वरूपी (तत्व) शुद्धात्म तत्त्व को (संप्रोषि) अनुभव में प्राप्त करके (सोइ) वह ज्ञानी (पिनमेक) एक क्षण में (एत्वं) ही (मोष्यं) मोक्ष को (ब्रजंति) चले जाते हैं, प्राप्त कर लेते हैं।
अर्थ- जो जीव चैतन्य गुणमयी धर्म में लीन होते हैं, वे दुःखों से रहित अंतरात्मा शुद्ध दृष्टि