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श्री मालारोहण जी
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चारित्र । (श्री न्यान समुच्चयसार जी ग्रंथ की गाथा - ३८२ एवं वृहद् मंदिर विधि में गुण पाठ पूजा श्लोक - ९ के आधार पर)
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गाथा - १४
निर्मल सम्यक्त्व का धारी सम्यग्दृष्टि
संकाय दोषं मद मान मुक्तं अनाय षट् कर्म मल पंचवीस
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अन्वयार्थ - (संकाय दोषं) शंकादि आठ दोष (मद) ज्ञानादि आठ मद (मान) अहंकार, अभिमान से (मुक्त) दूर रहने वाला ( मूढं त्रयं) तीन मूढ़ता ( अनाय षट् कर्म) छह अनायतन (मल पंचवीस) पच्चीस दोषों का ( तिक्तस्य) त्याग करने वाला (मिथ्या माया) मिथ्या माया को (न दिस्टं) नहीं देखने वाला (न्यानी) ज्ञानी (मल कर्म) कर्म मलों से (मुक्त) मुक्त हो जाता है।
अर्थ - शंका आदि आठ दोषों से, ज्ञान आदि आठ प्रकार के मद, अहंकार से दूर रहने वाला, तीन मूढता और छह अनायतन सम्यग्दर्शन के इन पच्चीस दोषों का त्यागी, मिथ्या माया को नहीं देखने वाला ज्ञानी कर्म बंधनों से मुक्त हो जाता है।
प्रश्न १- सम्यग्दर्शन के २५ दोष कौन-कौन से हैं?
उत्तर
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मूढं त्रयं मिथ्या माया न विस्टं । तिक्तस्य न्यानी मल कर्म मुक्तं ॥
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आठ दोष -शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढ़ दृष्टि, अनुपगूहन, अस्थितिकरण, अवात्सल्य, अप्रभावना आठ मदज्ञान मद, पूजा मद (धनमद) कुल मद, जाति मद, बलमद, ऋद्धि मद, तप मद, रूप मद । तीन मूढ़ता - देव मूढ़ता, लोक मूढता, पाखंड मूढ़ता। छह अनायतन कुदेव, कुगुरू, कुधर्म और तीन इनको मानने वाले सम्यग्दर्शन होने पर इन पच्चीस दोषों का अभाव हो जाता है।
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प्रश्न २- सम्यग्दृष्टि ज्ञानी की अंतरंग स्थिति कैसी होती है ?
उत्तर
निश्चय से मैं एक हैं, दर्शन ज्ञान मय सदा अरूपी हूँ, किंचित् मात्र अन्य पर द्रव्य, परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है, ऐसा जिसे निश्चय है, ऐसे सम्यग्दृष्टि ज्ञानी के जीवन में चाहे जैसे शुभाशुभ कर्म का उदय आये, जिसके भय से तीन लोक के जीव भी कांप उठें परन्तु सम्यग्दृष्टि ज्ञानी अपने ज्ञान भाव से चलायमान नहीं होता। ऐसे निर्मल दृढ श्रद्धान वाला ज्ञानी समस्त कर्म मलों से मुक्त हो जाता है।
गाथा - १५
स्वानुभव में चित्प्रकाश से परिपूर्ण शुद्धात्म तत्त्व
सुद्धं प्रकासं सुद्धात्म तत्वं, समस्त संकल्प विकल्प मुक्तं ।
रत्नत्रयं लंकृत विस्वरूपं, तत्वार्थ सार्धं बहुभक्ति जुक्तं ॥
अन्वयार्थ - (सुद्धात्म तत्वं) शुद्धात्म तत्त्व (सुद्धं प्रकास) शुद्ध प्रकाशमयी ज्ञान ज्योति स्वरूप (समस्त ) सभी प्रकार के (संकल्प विकल्प) संकल्प-विकल्पों से (मुक्तं ) रहित (रत्नत्रयं) रत्नत्रय से (लंकृत) अलंकृत, सुशोभित (विस्वरूपं ) परमात्म स्वरूप है ( तत्वार्थ) [ऐसे ] प्रयोजनभूत शुद्धात्म