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श्री मालारोहण जी गुणस्थानवर्ती होते हैं अतएव आत्म कल्याणार्थी भव्य जीवों को उचित है कि पहले धर्म का वास्तविक स्वरूप समझें, मुक्ति के मार्ग को जानें,तत्त्वों का सही ज्ञान करें, अपने आत्मा के स्वभाव-विभाव को जानें। सम्यग्दर्शन सहित विभाव त्यागने और स्वभाव की प्राप्ति रूप अपने गुणों को प्रगट करने के लिये श्रावक तथा मुनिव्रत की साधक बाह्य और अन्तरंग
क्रियायें व उनके फल को जानें, पश्चात् यथाशक्ति व्रत अंगीकार करें। प्रश्न ४- प्रतिमा तथा व्रताचरण के निरतिचार पालन करने का क्या फल है? उत्तर - जो जीव प्रतिमा और व्रताचरण का निरतिचार पालन करता है तथा मृत्यु के समय समाधि
धारण करके व्रत एवं प्रतिमा संबंधी दोषों को दूर करता है, वह श्रावक के व्रतों का पालन करके सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न होता है वहाँ से आकर मनुष्य पर्याय प्राप्त करके मोक्ष जाता है।
गाथा - १३ सम्यग्दृष्टि साधक की चर्या स्याद्वाद से सम्पन्न मूलं गुनं पालंति जे विसुद्धं, सुद्धं मयं निर्मल धारयेत्वं ।
न्यानं मयं सुद्ध धरति चित्तं, ते सुद्ध दिस्टी सुद्धात्म तत्वं ॥ अन्वयार्थ - (जे) जो जीव, जो साधक (मूलं गुन) मूलगुणों का (विसुद्ध) विशुद्ध भावों से (पालति) पालन करते हैं (सुद्ध मयं निर्मल) शुद्ध भाव मय निर्मलता को (धारयेत्व) धारण करते हैं (सुद्ध) शुद्ध (न्यानं मयं) ज्ञानमयी (सुद्धात्म तत्वं) शुद्धात्म तत्त्व को (धरंति चित्तं) चित्त में धरते हैं (ते) वे (सुद्ध दिस्टी) शुद्ध दृष्टि हैं।
अर्थ - जो जीव मूलगुणों का विशुद्ध भावों से पालन करते हैं, शुद्ध भावमय निर्मलता को धारण करते हैं, परम ज्ञानमयी शुद्धात्म तत्त्व को चित्त में धरते हैं, चिंतवन करते हैं वे शुद्ध दृष्टि मोक्षमार्गी साधक हैं। प्रश्न १- मूलगुण किसे कहते हैं, किस भूमिका में कौन से मूलगुण होते हैं। उत्तर - प्रथम भूमिका में पालन किये जाने वाले गुणों को मूलगुण कहते हैं। १. श्रावक की भूमिका में
पाँच उदम्बर (बड़, पीपल, ऊमर, कठूमर, पाकर के फल) और तीन मकार (मद्य, मांस, मधु ) के त्याग करने को अष्ट मूल गुण कहते हैं। २. सम्यग्दृष्टि ज्ञानी की भूमिका में संवेग, निर्वेद, निंदा, गर्हा, उपशम, भक्ति, वात्सल्य, अनुकम्पा इन गुणों के पालन करने को अष्ट मूल गुण कहते हैं । ३. साधु पद में २८ मूलगुण होते हैं - पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रिय निरोध,छह आवश्यक, सात अन्य गुण । पाँच महाव्रत - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह । पाँच समिति-ईर्या, भाषा, ऐषणा, आदाननिक्षेपण, प्रतिष्ठापना । पांच इन्द्रिय निरोध - स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण इन पाँच इन्द्रियों पर संयम होता है। छह आवश्यक - सामायिक, स्तवन, वंदना, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग । सात अन्य गुण - केशलोंच, अचेलकत्व, अस्नान, भूमिशयन, अदन्तधोवन, खड़े-खड़े भोजन, एक बार भोजन। विशेष - श्री जिन आचार्य तारण स्वामी जी ने निश्चय और व्यवहार के समन्वय पूर्वक २८ मूलगुण इस प्रकार बताये हैं - सम्यग्दर्शन के १०भेद, सम्यग्ज्ञान के ५ भेद, १३ प्रकार का