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________________ श्री मालारोहण जी गाथा-६ मुक्ति सुख को प्राप्त करने का उपाय जे मुक्ति सुष्यं नर कोपि साधं, संमिक्त सुद्ध ते नर धरेत्वं । रागादयो पुन्य पापाय दूर, ममात्मा सुभावं धुव सुद्ध दिस्ट ॥ अन्वयार्थ - (जे) जो (कोपि) कोई भी (नर) पुरुषार्थी भव्य जीव (मुक्ति सुष्यं) मोक्ष के सुख को (साध) साधना, पाना चाहते हैं (ते) वे (नर) पुरुषार्थी साधक (संमिक्त सुद्ध) शुद्ध सम्यक्त्व को (धरेत्वं) धारण करें (रागादयो) राग आदि विकारी भाव (पुन्य पापाय) पुण्य-पापादि कर्मों से (दूर) दूर (ममात्मा) मेरी आत्मा का (सुभाव) स्वभाव (धुव) शाश्वत, अविनाशी (सुद्ध) कर्म रहित, शुद्ध है (दिस्ट) ऐसा देखें, अनुभव करें। अर्थ- जो कोई भी पुरुषार्थी नर अर्थात् भव्य जीव मुक्ति के सुख को प्राप्त करना चाहते हैं, वे शुद्ध सम्यक्त्व को धारण करें। रागादि विकारी भाव और पुण्य-पाप से दूर मेरा आत्म स्वभाव ध्रुव है, शुद्ध है, ऐसा देखें अर्थात् अनुभव करें। प्रश्न १- मोक्ष का सुख कैसा है? उत्तर - मोक्ष का सुख अनुपम, अतीन्द्रिय, बाधा रहित, इन्द्रियातीत, कभी नष्ट न होने वाला,शाश्वत और अविनाशी है। प्रश्न २- शुद्ध सम्यक्त्व किसे कहते हैं? उत्तर - अपने आत्म स्वरूप के दृढ़ अटल निश्चय श्रद्धान को शुद्ध सम्यक्त्व कहते हैं। प्रश्न ३- रागादि भाव और पुण्य-पाप का आत्मा से क्या संबंध है? उत्तर - रागादिभाव माहनाय का रागादि भाव मोहनीय कर्म के उदय निमित्त से होने वाले अशद्ध भाव हैं और आत्मा स्वभाव से ध्रुव शुद्ध है अत: रागादि विकारी भावों का आत्मा से कोई भी संबंध नहीं है। पुण्य-पाप कर्म भी जड़ हैं, अचेतन हैं और आत्मा ज्ञानानंद स्वभावी चैतन्य स्वरूप है,आत्मा और कर्म दोनों की प्रकृति भिन्न-भिन्न है अत: पुण्य-पाप कर्म का चैतन्य ज्ञायक स्वभावी आत्मा से कोई संबंध नहीं है। गाथा-७ आत्म स्वरूप की महिमा और आत्म दर्शन की प्रेरणा श्री केवलं न्यान विलोकि तत्वं, सुद्ध प्रकासं सुद्धात्म तत्वं । संमिक्त न्यानं चरनंत सुष्यं, तत्वार्थ साधं त्वं दर्सनेत्वं ॥ अन्वयार्थ - (श्री केवलं न्यान) श्री केवलज्ञानी भगवान ने अपने ज्ञान में (तत्व) तत्त्व को (विलोकि) देखा है (सुद्धात्मतत्व) शुद्धात्म तत्त्व (सुद्धं प्रकासं) शुद्ध प्रकाशमयी (समिक्त) सम्यग्दर्शन (न्यानं) सम्यग्ज्ञान (चर) सम्यक्चारित्र से परिपूर्ण (नंत सुष्यं) अनंत सुख स्वभावी है (तत्वार्थ) प्रयोजनभूत शुद्धात्म तत्त्व की (साध) श्रद्धा करो (त्वं) तुम भी (दर्सनेत्व) देखो, दर्शन करो, अनुभव करो।
SR No.009715
Book TitleGyanodaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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