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श्री मालारोहण जी
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गाथा-३
सम्यक्दृष्टि सच्चे पुरुषार्थी काया प्रमानं त्वं ब्रह्मरूपं, निरंजन चेतन लण्यनेत्वं ।
भावे अनेत्वं जे न्यान रूपं, ते सुद्ध दिस्टी संमिक्त वीज ॥ अन्वयार्थ - (त्व) तुम [आत्मा (काया प्रमानं) शरीर के बराबर (ब्रह्म रूप) ब्रह्म स्वरूपी (निरंजन) कर्म मल से रहित (चेतन लष्यनेत्वं) चैतन्य लक्षण मयी हो [ऐसा श्रद्धान कर] (जे) जो जीव (अनेत्वं) अनित्य, क्षणभंगुर, नाशवान (भावे) भाव में, अशुद्ध पर्यायी परिणमन में (न्यान रूप) ज्ञान रूप अर्थात् ज्ञायक रहते हैं (ते) वे (सुद्ध दिस्टी) सम्यक्दृष्टि (संमिक्त वीज)सच्चे पुरुषार्थी हैं ।
अर्थ- हे आत्मन् ! तुम शरीर के प्रमाण हो, ब्रह्मस्वरूपी, निरंजन अर्थात् कर्म मलों से रहित, चैतन्य लक्षणमयी हो ऐसा श्रद्धान करके जो जीव अनित्य भावों से भिन्न ज्ञान रूप ज्ञायक रहते हैं, वे शुद्ध दृष्टि अर्थात् सम्यक्दृष्टि सच्चे पुरुषार्थी हैं।। प्रश्न १- आत्मा का व्यवहार नय और निश्चय नय से क्या स्वरूप है? उत्तर - आत्मा व्यवहार नय से काया प्रमाण है अर्थात् नाम कर्म के उदय से प्राप्त छोटे-बड़े शरीर के
बराबर है और निश्चय नय से ब्रह्म स्वरूपी कर्म मल से रहित सिद्ध के समान शुद्ध है। प्रश्न २- सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं? उत्तर - अपने आत्म स्वरूप का अनुभव प्रमाण बोध होना ही सम्यग्दर्शन है। प्रश्न ३- सम्यग्दृष्टि जीव की क्या विशेषता है? उत्तर - सम्यग्दृष्टि जीव संसार, शरीर, संयोग और संयोगी भावों में, जल में कमल की तरह ज्ञायक
रहता है। प्रश्न ४- सच्चा पुरुषार्थ क्या है? उत्तर - ज्ञायक रहना ही सच्चा पुरुषार्थ है। प्रश्न ५- इस गाथा की क्या विशेषता है? उत्तर - इस गाथा में आचार्य महाराज ने आत्मचिंतन के पाँच सूत्र दिये हैं जो इस प्रकार हैं -
१. मैं आत्मा शरीर के बराबर हूँ। (शरीर नहीं) २. मैं आत्मा ब्रह्म स्वरूपी हूँ। (संसारी नहीं) ३. मैं आत्मा कर्म मलों से रहित हूँ। (अशुद्ध नहीं) ४. मैं आत्मा चैतन्य लक्षण वाला
हूँ। (जड़ नहीं) ५. मैं आत्मा अनित्य भावों से भिन्न ज्ञान स्वरूपी हूँ। (ज्ञायक हूँ) प्रश्न ६- "काया प्रमानं त्वं ब्रह्म रूपं " से संबंधित जैन आचार्य भगवंतों का क्या संदेश है ? उत्तर -
जह पउमराय रयणं,खित्तं खीरे पभासयदि खीरं।
तह देही देहत्थो, सदेहमेत पभासयदि ॥ जिस प्रकार पद्मराग रत्न दूध में डाला जाने पर दूध को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार देही अर्थात् जीव देह में रहता हुआ स्वदेह प्रमाण प्रकाशित होता है।
(श्री कुन्दकुन्दाचार्य, पंचास्तिकाय संग्रह - गाथा ३३)