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श्री मालारोहण जी
गाथा-१
मंगलाचरण - साध्य का निर्धारण उर्वकार वेदन्ति सुद्धात्म तत्वं, प्रनमामि नित्यं तत्वार्थ साधं ।
न्यानं मयं संमिक दर्स नेत्वं, संमिक्त चरनं चैतन्य रूपं ॥ अन्वयार्थ - (उर्वकार) पंच परमेष्ठी (सुद्धात्म तत्वं) शुद्धात्म तत्त्व का (वेदन्ति) अनुभव करते हैं (नेत्व) नित्य, सदाकाल (संमिक दर्स) सम्यग्दर्शन (न्यानं) सम्यग्ज्ञान (समिक्त चरन) सम्यक् चारित्रा (मयं) मयी (चैतन्य रूप) चैतन्य स्वरूपी (तत्वार्थ) प्रयोजन भूत तत्त्व अर्थात् शुद्धात्म तत्त्व की (साध) साधना के लिये (नित्यं) नित्य ही, सदैव (प्रनमामि) प्रणाम करता हूं।
अर्थ- पंच परमेष्ठी शुद्धात्म तत्त्व का अनुभव करते हैं। वह शुद्धात्म तत्त्व सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र मयी चैतन्य स्वरूपी है। ऐसे प्रयोजनभूत शुद्धात्म तत्त्व की साधना करने के लिये, मैं हमेशा उसे प्रणाम करता हूँ। प्रश्न १- इस गाथा में शुद्धात्म तत्त्व को नमस्कार क्यों किया है? उत्तर - आत्म कल्याण करने वाले जीव के लिये निज शुद्धात्म तत्त्व साध्य, आराध्य होता है, उसकी
साधना और प्राप्ति के लिये शुद्धात्म तत्त्व को नमस्कार किया है। प्रश्न २- शुद्धात्म तत्त्व कैसा है? उत्तर - शुद्धात्म तत्त्व सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र मयी चैतन्य स्वरूपी है । प्रश्न ३- पंच परमेष्ठी शुद्धात्म तत्त्व का कैसा अनुभव करते हैं? उत्तर - अरिहंत सिद्ध परमेष्ठी शुद्धात्म तत्त्व के निर्विकल्प अनुभव में सदैव लीन रहते हैं। आचार्य,
उपाध्याय और साधु परमेष्ठी शुद्धोपयोग में निर्विकल्प स्वानुभूति करते हैं तथा सविकल्प
दशा में ज्ञान में प्रतीति रूप अनुभव करते हैं। प्रश्न ४- उवंकार में पंच परमेष्ठी किस प्रकार गर्भित हैं? उत्तर - पाँचों परमेष्ठी के प्रथम अक्षरों के संयोग से ॐ में पंच परमेष्ठी इस प्रकार समाहित
हैं -अरिहंत का - अ सिद्ध अशरीरी होते हैं उनका - अ, अ + अ = आ आचार्य का - आ, आ+आ आ उपाध्याय का - उ, आ+उ = ओ साधु मुनि होते हैं उनका - म्, ओ+ म् = ओम्
गाथा-२
वंदना एवं ग्रंथ कथन की प्रतिज्ञा नमामि भक्तं श्री वीरनाथं, नंतं चतुस्ट त्वं विक्त रूपं ।
माला गुनं बोछन्ति त्वं प्रबोधं, नमामिह केवलि नंत सिद्ध ॥ अन्वयार्थ - (त्वं) हे प्रभो] आपने (नंतं चतुस्ट) अनन्त चतुष्टय मयी (रूप) स्वरूप को