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________________ श्री मालारोहण जी ४५ आचार्य तारण स्वामी जी कृत ग्रंथों में मोक्षमार्ग का स्वरूप मोक्षमार्ग का स्वरूप परिपूर्ण अतीन्द्रिय आनन्दमय दशा को प्राप्त करने में कारण भूत नियामक कारणों को मोक्ष मार्ग कहते है। मोक्ष मार्ग तो एक ही है उसका कथन दो प्रकार से किया जाता है। निश्चय मोक्षमार्ग और व्यवहार मोक्षमार्ग । व्यवहार मोक्षमार्ग - छह द्रव्य, पंचास्तिकाय, सात तत्त्व और नौ पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, अंग पूर्व संबंधी आगम ज्ञान सम्यग्ज्ञान है और तप साधना में प्रवृत्ति करना सम्यक्चारित्र है। इस प्रकार व्यवहार मोक्षमार्ग है। इसको दूसरे रूप में इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि जीवादि नौ पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, उन पदार्थों का अधिगम अर्थात् ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान है और रागादि परिणामों का परिहार करना सम्यक्चारित्र है यह व्यवहार मोक्षमार्ग का स्वरूप है। पंचास्तिकाय, छह द्रव्य तथा जीव- पुद्गल के संयोगी परिणामों से उत्पन्न आस्रव, बन्ध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा और मोक्ष इस प्रकार नव पदार्थों के विकल्परूप व्यवहार सम्यक्त्व है। निश्चय मोक्षमार्ग जो साधक अथवा साधु अंतर में निश्चय को प्रधान करके चलते हैं उनके श्रद्धान के अनुसार आत्म स्वरूप के निश्चय को सम्यग्दर्शन, आत्म स्वरूप के ज्ञान को सम्यग्ज्ञान तथा उसी आत्मा में स्थिर होने को सम्यक्चारित्र कहते हैं। इन तीनों की एकता मोक्ष का कारण है। वास्तव में शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा से यह तीनों एक चैतन्य स्वरूप ही हैं। एक अखण्ड आत्मा में भेदों के लिये स्थान ही नहीं है। ज्ञानी अपने आत्म स्वभाव की अखंडता का अनुभव करते हुए ज्ञायक रहता है। इसलिये जो आत्मा रत्नत्रय की अखण्डता मय निजात्मा में एकाग्र होता हुआ अन्य कुछ भी न करता है, न छोड़ता है अर्थात् करने व छोड़ने के विकल्पों से अतीत हो जाता है वह आत्मा ही निश्चय से मोक्षमार्ग है । - प्रथम जब निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट होता है तब विकल्प रूप व्यवहार सम्यग्दर्शन का अभाव होता है । इसलिये वह (व्यवहार सम्यग्दर्शन) वास्तव में निश्चय सम्यग्दर्शन का साधक नहीं है, तथापि उसे भूतनैगमनय से साधक कहा जाता है, अर्थात् पहिले जो व्यवहार सम्यग्दर्शन था वह सम्यग्दर्शन के होते समय अभाव रूप होता है, इसलिये जब उसका अभाव होता है तब पूर्व की सविकल्प श्रद्धा को व्यवहार सम्यग्दर्शन कहा जाता है। इस प्रकार व्यवहार सम्यग्दर्शन निश्चय सम्यग्दर्शन का कारण नहीं, किंतु उसका अभाव कारण है। सार बात यह है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र इन तीनों गुणों को रत्नत्रय कहते हैं । जीवादि सात तत्त्व और सच्चे देव गुरू शास्त्र आदि की श्रद्धा, आगम का ज्ञान और व्रत आदि चारित्र का पालन करना भेद रत्नत्रय है तथा आत्म स्वरूप की श्रद्धा, आत्मा का स्वसंवेदन ज्ञान और आत्म स्वरूप में निश्चल स्थिति या निर्विकल्प समाधि में स्थित होना अभेद रत्नत्रय है। रत्नत्रय की एकता ही मोक्षमार्ग है भेद रत्नत्रय व्यवहार मोक्षमार्ग है और अभेद रत्नत्रय निश्चय मोक्षमार्ग है।
SR No.009715
Book TitleGyanodaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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