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ज्ञान विज्ञान भाग -२ है। ज्ञान से ही आत्मशांति मिलती है, इसलिए ज्ञान ही तीन लोक में सार है।
ज्ञानी का जीवन निश्चय - व्यवहार से समन्वित होता है, यही मक्ति का आधार है। एकांतवाद मिथ्या है, इसलिये आत्मार्थी साधक अंतर्बाह्य एक समान होता है। इस प्रकार सम्यग्ज्ञानी की चर्या, पूजा विधि और फल का वर्णन पंडित पूजा ग्रंथ में किया गया है।
__ पूजा का क्या अर्थ है ? यह बहुत महत्त्वपूर्ण प्रश्न है, जिसके समाधान में आचार्य श्री जिन तारण स्वामी कहते हैं कि 'पूज्य के समान आचरण होना ही सच्ची पूजा है'।
पूजा का अभिप्राय पूज्य सम, स्वयं पूज्य बन जाना है। जो भी अपना इष्ट मानते, उसी इष्ट को पाना है | कु देवादि की पूजा करना, यही महा अज्ञान है ।
पूज्य समान आचरण ही, पूजा का सही विधान है | श्री कमल बत्तीसी जी
विचारमत का यह तीसरा ग्रन्थ है, इसमें ३२ गाथायें हैं और सम्यक्चारित्र इस ग्रन्थ का प्रमुख विषय है। चारित्र के दो भेद हैं - निश्चय सम्यक् चारित्र और व्यवहार सम्यक् चारित्र । आत्म स्वरूप में लीन रहना निश्चय सम्यक् चारित्र है। पाप विषय कषाय के त्याग पूर्वक व्रत, समिति, गुप्ति रूप आचरण को व्यवहार सम्यक् चारित्र कहते हैं।
जनरंजन राग, कलरंजन दोष, मनरंजन गारव से विरक्त होने पर ही सच्चा चारित्र होता है। विकथायें और विभाव परिणाम चारित्र में बाधक होते हैं इसलिये ज्ञानी साधक आत्मा और पर पदार्थों को भिन्न-भिन्न जानकर स्वरूप में स्थित होने का पुरुषार्थ करते हैं।
प्राणी मात्र से मैत्री भाव, गुणीजनों के प्रति प्रमोद भाव, दुःखी जीवों पर करुणा और हठी जीवों पर माध्यस्थ भाव रखना यही ज्ञानी सम्यग्दृष्टि का कर्तव्य है।
स्व पर का यथार्थ निर्णय कर, जिसको सम्यग्ज्ञान जगा । मिथ्याभाव शल्य आदि का, भ्रम भय सब अज्ञान भगा ॥ सारे कर्म विला जाते हैं, धरता आतम ध्यान है । कमल बत्तीसी जिसकी खिल गई, बनता वह भगवान है ।