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न्यान आलम्बनऊ) ज्ञान से ज्ञान का आलंबन लेकर (न्यान मई) ज्ञानमयी सत्ता स्वरूप में (अनुरत्तऊ) लीन होने से (परमप्पु सिद्धि संपत्तऊ) परमात्म पद की प्रगटता और सिद्धि की सम्पत्ति प्राप्त होती है।
जिनेन्द विंद छंद गाथा का सारांश जिनेन्द विंद छंद गाथा, आचार्य प्रवर श्रीमद् जिन तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज द्वारा रचित श्री भय षिपनिक ममल पाहुड़ जी ग्रन्थ की बत्तीसवीं फूलना है। इस फूलना में नंद, आनंद, चिदानंद, सहजानंद, परमानंद इन पाँच नंद की तथा आत्म स्वरूप की अद्वितीय महिमा का वर्णन किया गया है। जिनेन्द विंद का अर्थ है अपने जिनेन्द्र स्वरूप का अनुभव करना और छंद गाथा का अर्थ है यह फूलना छंद बद्ध रचना है।
आचार्य देव कहते हैं कि यह आत्मा स्वभाव से परमात्मा है, उत्कृष्ट और श्रेष्ठ पद का धारी है। स्वभाव के आश्रय पूर्वक स्वानुभव में परम पारिणामिक भाव प्रगट होता है । केवलज्ञानी परमात्मा अपने पूर्ण स्वानुभव में लीन रहते हुए भव्य जीवों को ममल स्वभाव की साधना का उपदेश देते हैं। उनके वचन, भय को क्षय करने वाले और मुक्ति गमन में सहकारी होते हैं।
भगवान की वाणी को स्वीकार कर आत्मार्थी भव्य जीव परम इष्ट ज्ञान स्वभाव पर दृष्टि रखता है और नंद आनंद में आनंदित रहता है। ज्ञान स्वभाव में रहने की ऐसी अपूर्व महिमा है कि- १. अनिष्टकारी आठ कर्मों के समूह छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। २. शुद्ध ध्यान में ज्ञानमयी परमात्म स्वरूप झलकता है। ३. राग-द्वेष आदि मिथ्या भाव, शल्य और भय दूर हो जाते हैं। ४. विषयों की अनिष्ट दृष्टि नहीं रहती। ५. चित्त की समलता समाप्त हो जाती है। ६. मोह मद चूर - चूर हो जाता है। ७. शरीर से संबंधित भाव गल जाते हैं। ८. इन्द्रिय विषयों के निमित्त से उत्पन्न होने वाला भय मिट जाता है। ९. तीनों प्रकार के कर्म मल गल जाते हैं। १०. अनंत चतुष्टमयी स्वरूप प्रत्यक्ष अनुभूति में वर्तता है।
ऐसे महिमामयी स्वभाव को भूलकर जीव विभाव में रमता है। मन में होने वाले विकारों का रस लेता है, यह सब अज्ञान है। अज्ञान भाव जीव को अनंत दु:ख के कारण हैं। जबकि ज्ञान स्वभाव अनंत सुख का कारण है।
रत्नत्रयमयी ज्ञान स्वभावी परमात्मा स्वयं आत्मा ही है। ऐसे अपने परमात्म स्वरूप का चिंतन और अनुभव आनंद की वृद्धि का कारण है । इससे समस्त दुःखदाई पर्यायें विला जाती हैं । एकमात्र अभेद स्वभाव की साधना ही मोक्ष का मार्ग है । भव्य जीव ज्ञान आदि अनंत गुणों की आराधना करता हुआ विषयों के राग और जगत के व्यामोह से ऊपर उठकर ममल स्वभाव में रमण करता है। इस पुरुषार्थ से वह कर्मों को क्षय कर सिद्धि के शाश्वत सुख को प्राप्त कर लेता है।
प्रश्नोत्तर प्रश्न १ - परम भाव किसे कहते हैं? उत्तर - शरीरादि पर संयोगों से विरक्ति और रागादि भावों से विमुखता पूर्वक ममल स्वभाव के आश्रय
से परिणामों में जो निर्मलता और विशुद्धता प्रगट होती है उसे परम भाव कहते हैं। प्रश्न २ - परम भाव की उपलब्धि कैसे होती है? उत्तर - पंच परमेष्ठीमयी शुद्धात्म स्वरूप परम तत्त्व है, परम जिन है, ऐसे वीतराग स्वभाव की दृष्टि
और सत्पुरुषार्थ से परम भाव की उपलब्धि होती है।