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श्री ममलपाहुड़ जी फूलना - ११
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आशय यहाँ रत्नत्रय से है । यह तिअर्थमयी आत्मधर्म अमृत स्वरूप है। इसमें रमण करने से भय, शल्य, शंकायें समाप्त हो जाती हैं। भेदज्ञान पूर्वक प्रगट होने वाला आत्मधर्म अनुभव में प्रकाश रूप वर्तता है। धर्मात्मा जीव पूर्ण ज्ञान स्वरूप का श्रद्धानी होता है, निर्विकल्प स्वभाव को इष्ट मानता है। किसी को पर्याय दृष्टि से छोटा बड़ा नहीं देखता। उसके विकारी भाव विलय हो जाते हैं और जन्म मरण का अभाव हो जाता है। जिनेन्द्र भगवान की देशना है कि ऐसे धर्म का धारक जीव परमात्म पद प्राप्त करता है ।
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धर्म ऐसा परम अमृत है जिसको जीव ने अभी तक धारण, ग्रहण, सहन, रहनि (निवास), रमण, दर्शन, अनुभव और प्राप्त नहीं किया जीव उपरोक्त शब्दों के क्रमानुसार धर्म को धारण, ग्रहण, सहन ( स्वीकार), रहनि (निवास) आदि पूर्वक प्राप्त करे तो पर्यायी अनंत भय और उक्त शब्दों के अनुसार संसार और कर्मों का धारण, ग्रहण आदि समाप्त हो जावेगा ।
धर्म चर्चा का नहीं, चर्या का विषय है । धर्म परिभाषा नहीं, जीवन का प्रयोग है। धर्म शब्दों में नहीं, स्वानुभव में है । धर्म की अपूर्व महिमा है। धर्म की साधना आराधना और स्वभाव लीनता से मुक्ति की प्राप्ति होती है ।
प्रश्नोत्तर
प्रश्न १ - परम इष्ट प्रयोजनीय क्या है ?
उत्तर
प्रश्न २ उत्तर
प्रश्न ३
उत्तर
प्रश्न ४
उत्तर
प्रश्न ५
उत्तर प्रश्न ६ उत्तर
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संसार के सभी जीवों को स्वभाव से परमात्म स्वरूप देखना, किसी से राग-द्वेष नहीं होना, अपने प्रकाशमान परमपद के आश्रय से समभाव में रहना ही परम इष्ट प्रयोजनीय है। धर्म जीवन में किस प्रकार प्रगट होता है ?
धर्म पर पदार्थों के आश्रय से और परोन्मुखी दृष्टि से नहीं होता, आनंदमयी त्रिकाली ममल स्वभाव के आश्रय से स्वानुभूति पूर्वक धर्म जीवन में प्रगट होता है।
रमण करने योग्य क्या है ?
परम शुद्ध त्रिकाली ध्रुव ममलह ममल स्वभाव रमण करने योग्य है। जन्म-मरण का अभाव किसको होता है ?
कर्म से निबद्ध जीव देह में रहता हुआ भी कभी कर्म रूप या देह रूप नहीं होता, ऐसे अनादि अनंत ममल स्वभाव को जो स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा जानते हैं और अपने शुद्धात्म स्वरूप में लीन होते हैं ऐसे ज्ञानी जनों के जन्म-मरण का अभाव होता है।
निर्मल ज्ञान के प्रकाश में कौन से मंत्र सहकारी हैं ?
ओंकार, ह्रींकार, श्रींकार मंत्र निर्मल ज्ञान के प्रकाश में सहकारी हैं।
ओम् ह्रीं श्रीं मंत्र का ध्यान करने से क्या लाभ है ?
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ओम् - ओम् मंत्र पंच परमेष्ठी वाचक है। ओम् मंत्र का ध्यान करने से ओंकार स्वरूप परमात्म सत्ता अनुभव में आती है।
ह्रीं - ह्रीं मंत्र चौबीस तीर्थंकर अर्हत सर्वज्ञ स्वरूप का वाचक है। ह्रीं मंत्र का ध्यान करने से तीर्थंकर स्वरूप सर्वज्ञपना अंतरंग में प्रगट होता है।
श्रीं श्रीं मंत्र केवलज्ञानमयी मोक्ष लक्ष्मी स्वरूप है । श्रीं मंत्र का ध्यान करने से अपने श्रेष्ठ पद शुद्धात्म स्वरूप में लीनता होती है।
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