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श्री ममलपाहुड़ जी फूलना -५ का जहर उतर जायेगा।
गंमु गलिय जिन गमु गमिऊ, गम दिप्ति दिस्टि उव उत्तु ।
सब्द इस्टि सुइ अमिय मउ, भय बिपिय ममल दर्सतु ॥२०॥ भावार्थ :- [हे आत्मन् !] (जिन) वीतराग स्वरूप को (गमिऊ) स्व संवेदन पूर्वक जानो (गमु) इसे जानने से (गंमु गलिय) सांसारिक अनुभव गल जायेंगे (उव) शुद्धात्म तत्त्व को (दिस्टि) द्रव्य दृष्टि से देखने पर (दिप्ति) दैदीप्यमान स्वभाव का (गम) अनुभव होता है (उत्तु) जिनेन्द्र भगवान ने ऐसा कहा है (सब्द) जिनवचनों के द्वारा (इस्टि सुइ) अपने इष्ट (अमिय मउ) अमृतमयी (ममल) ममल स्वभाव को (दसंतु) देखो, इससे (भय षिपिय) भय क्षय हो जायेंगे।
अगमु गलिय जिनु अगमु गमिउ, गमियो नंतानंतु ।
विंद विन्यान सु समय मउ, धम्मु रमनु सिव पंथु ॥ २१ ॥ भावार्थ :- (जिनु) हे अंतरात्मन् ! (अगमु) अतीन्द्रिय स्वभाव को (गमिउ) जान लिया, इससे (अगमु गलिय) स्वभाव को नहीं जानने रूप परिणति गल गई [अपने] (नंतानंत) अनंत सत्ता स्वरूप के (गमियो) अनुभव में रत रहो (विन्यान) भेदज्ञान पूर्वक (सुसमय) शुद्धात्मा की (विंद) निर्विकल्प अनुभूति (मउ) मयी (धम्मु) धर्म में (रमनु) रमण करना (सिव पंथु) मोक्षमार्ग है।
लब्धि गलिय जिन लब्धि पउ, जिनियो कम्मु सहाउ ।
पर्जय भय विलयंतु सुइ, अमिय रस ममल सुभाउ ॥ २२ ॥ भावार्थ :- (जिन) हे अंतरात्मन् ! (पउ) निज पद की (लब्धि) प्राप्ति हुई है (लब्धि गलिय) वैभाविक उपलब्धियाँ गल गई हैं (सहाउ) स्वभाव के आश्रय से (कम्मु) कर्मों को (जिनियो) जीतो (अमिय रस) अमृत रसमयी (ममल सुभाउ) ममल स्वभाव में रहो (पर्जय भय) पर्यायी भय (विलयतु सइ) स्वयमेव विला जायेंगे।
परम परम परिनामु धरि, परम न्यान सहकार ।
पर पर्जय भय सल्य विली, परम धर्म सहकार ॥ २३ ॥ भावार्थ :- [हे आत्मन् !] (परम न्यान) उत्कृष्ट ज्ञान [सम्यग्ज्ञान] का (सहकार) सहकार कर (परम परम) उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होते हुए (परिनामु धरि) परिणामों को धारण करो (परम धर्म सहकार) सत्यधर्म को स्वीकार करो, इससे (पर पर्जय) पर पर्याय (भय सल्य विली) भय शल्य आदि विभाव विला जायेंगे।
धर्म दीप्ति गाथा का सारांश धर्म दिप्ति गाथा, आचार्य प्रवर श्रीमद् जिन तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज द्वारा रचित श्री भय षिपनिक ममल पाहुड़ जी ग्रन्थ की पाँचवीं फूलना है। इस फूलना में सच्चे धर्म का स्वरूप बतलाया गया है। धर्म दिप्ति गाथा का अर्थ है धर्म का स्वरूप प्रकाशित करने वाली फूलना।
आचार्य देव इस फूलना में कहते हैं कि श्री जिनेन्द्र भगवान के कहे अनुसार प्रयोजनीय रत्नत्रय की आराधना करना धर्म है। इस धर्म के आश्रय से जीव निर्भय हो जाता है और परम्परा से मुक्ति को प्राप्त करता है।
वस्तुतः वीतराग धर्म का वीतराग भाव में वीतरागी साधु ही प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। निचली भूमिका के साधक श्रद्धान, ज्ञान तथा यथायोग्य चारित्र प्रमाण अनुभव करते हैं। धर्म तिअर्थमयी है, तिअर्थ का