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श्री ममलपाइड जी फूलना-५
उवंकार उन मई, ह्रियंकार हिययारू ।
श्रींकारह संजुत्तु सिरी, ममल भाव सहकारू ॥ ३ ॥ भावार्थ :- (उर्वकार) पंचपरमेष्ठी मयी शुद्धात्म स्वरूप की (मई) अनुभूति (उर्वन) उत्पन्न अर्थ है (हियंकार) परमात्म स्वरूप का बोध (हिययारू) हितकार अर्थ है (ममल भाव) ममल स्वभाव रूप (सिरी) मोक्ष लक्ष्मी में (संजुत्तु) लीनता (श्रींकारह) श्रींकारमयी (सहकारू) सहकार अर्थ है।
उवन हिययार सहयार मउ, अर्थति अर्थ संजुत्तु ।
धम्मु जु धरियो ममल पउ, अमिय रमन जिन उत्तु ॥ ४ ॥ भावार्थ :- (जिन उत्तु) जिनेन्द्र भगवान कहते हैं कि (जु) जो (उवन) उत्पन्न अर्थ (हिययार) हितकार अर्थ (सहयार) सहकार अर्थ (अर्थ) प्रयोजनीय (अर्थति) रत्नत्रय (मउ) मयी स्वभाव (धम्मु) धर्म है (धरियो) इसे धारण करो (संजुत्तु) इससे संयुक्त रहो [और] (अमिय) अमृत स्वरूप (ममल पउ) ममल पद में (रमन) रमण करो।
रमने रमियो ममल पउ, भय सल्य संक विलयतु ।
अन्मोय न्यान भय पिपिय सुई, धम्म धरिय जिन उत्तु॥ ५॥ भावार्थ :-(रमने) रमण करने योग्य (ममल पउ) ममल पद में (रमियो) रमण करो इससे (भय सल्य संक विलयंतु) भय शल्य शंकायें विला जायेंगी (अन्मोय न्यान) ज्ञान स्वभाव की अनुमोदना रूप (धम्मु धरिय) धर्म को धारण करो (जिन उत्तु) जिनेन्द्र भगवान कहते हैं कि (भय षिपिय सुई) भय स्वयमेव क्षय हो जायेंगे।
धम्मु जु धरियो ममल पउ, धरिय उवन जिन उत्तु ।
अर्क सु अर्क सु अर्क मउ, विंद विन्यान स उत्तु ॥ ६ ॥ भावार्थ :- (जिन उत्तु) जिनेन्द्र भगवान ने कहा है कि (ममल पउ) ममल पद स्वरूप (धम्मु) धर्म को (धरियो) धारण करो (जु) जो जीव [इसे] (धरिय) धारण करता है उसे (उवन) स्वानुभूति होती है [अंतरंग में] (अर्क सु अर्क सु अर्क मउ) चैतन्य स्वरूप प्रकाश ही प्रकाशमयी अनुभव में आता है (स) वह (विंद) अनुभव (विन्यान) आत्मज्ञान (उत्तु) कहा गया है।
अर्क सुयं जिन अर्क पउ, हिय अर्क रमन हिययार ।
गुपित अर्क सहकार जिनु, विद रमन विन्यानु ॥ ७॥ भावार्थ :- (जिनु) हे अंतरात्मन् ! (अर्क) ज्ञान से प्रकाशमान (सुयं) स्वयं का (अर्क पउ) दैदीप्यमान पद है (हिय) हृदय में (अर्क) प्रकाशित स्वरूप में (रमन) रमण करना (हिययार) हितकारी [सम्यग्ज्ञान] है (विन्यानु) भेदज्ञान पूर्वक (गुपित) स्व संवेदनगम्य (अर्क) दैदीप्यमान (जिनु) वीतराग स्वरूप की (विंद) निर्विकल्प अनुभूति में (रमन) लीन रहना (सहकार) सहकार अर्थ सम्यक्चारित्र है।
पय अर्कह पद विद समु, पदह परम पद उत्तु ।
परमप्पय परमप्पु जिन, भय षिपिय अमिय रस उत्तु ॥ ८ ॥ भावार्थ :- (पय) अमृत स्वरूप (अर्कह पद) प्रकाशमान निज पद का (विंद समु) अनुभव करना समभाव है (पदह परम पद) यह पद ही परम पद (उत्तु) कहा गया है (परमप्पु जिन) जिनेन्द्र परमात्मा ने [अपने] (परमप्पय) परमात्म पद को (भय षिपिय) भयों को क्षय करने वाला (अमिय रस) अमृत रसमयी (उत्तु) कहा है।