________________
श्री ममलपाहुड़ जी फूलना - ५
१५८ अर्थति अर्थह अर्क समु, लघु दीरघ नहु दिट्तु ।।
अर्क विन्द विन्यान समु, उत्पन्न भाउ सुइ इस्टु ॥ ९ ॥ भावार्थ :- (अर्थह) प्रयोजनीय (अर्थति) रत्नत्रयमयी स्वभाव के (अर्क) प्रकाश रूप (समु) समभाव में [कोई] (लघु दीरघ) छोटा बड़ा (नहु दिलु) दिखाई नहीं देता (विन्यान) भेदज्ञान के द्वारा (अर्क) प्रकाशमयी स्वभाव (विंद) अनुभूति पूर्वक (समु भाउ) समभाव [वीतराग भाव] उत्पन्न हुआ है [इसी में रहो] (सुइ इस्टु) यही इष्ट है।
धरयति धम्मु जु जिन कहिउ, धरयति लोउ अलोउ ।
अर्थति अर्थह समय समु, भय षिपिय अमिय सुइ उत्तु ॥१०॥ भावार्थ :-(अर्थह) प्रयोजनीय (समय) स्व समय अर्थात् निज आत्मा (अर्थति) रत्नत्रयमयी (समु) समभाव रूप है, यह (भय बिपिय) भयों को क्षय करने वाला (अमिय) अमृत स्वरूप (सुइ उत्तु) कहा गया है (जु) जो जीव (जिन कहिउ) जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहे हुए (धम्मु) धर्म को (धरयति) धारण करता है, वह (लोउ अलोउ) लोक और अलोक को (धरयति) धारण करता है [अर्थात् लोकालोक को जानने वाला केवलज्ञानी परमात्मा हो जाता है।
धरयति धरियो ममल पउ, समल भाव विलयंत ।
जामन मरन जु समल पउ, अन्मोय न्यान विलयतु ॥११॥ भावार्थ:-(धरयति) ज्ञानीजन जिसे धारण करते हैं, ऐसे (ममल पउ) ममल पद को (धरियो) धारण करो, इससे (समल भाव) रागादि विकारी भाव (विलयंतु) विलय हो जाते हैं [और (जामन मरन) जन्म - मरण आदि (जु) जो (समल पउ) कर्म जनित अशुद्ध दशायें हैं (अन्मोय न्यान) ज्ञान स्वभाव की अनुमोदना से वे (विलयंत) क्षय हो जाती हैं।
धरन विलय जिन धरन धरिउ. धम्म तिलोय पसिद्ध।
नंत न्यान विन्यान पउ, पर पर्जय विलयं तु ॥ १२ ॥ भावार्थ :- (जिनु) हे अंतरात्मन् ! (धम्मु) धर्म (तिलोय) तीन लोक में (पसिद्ध) प्रसिद्ध है (धरिउ) इसे धारण करो (धरन) इसको धारण करने से (धरनु विलय) जो मिथ्या मान्यतायें अनादिकाल से धारण की हैं, वे विला जायेंगी (नंत न्यान विन्यान पउ) अनंत ज्ञान विज्ञान मयी पद में रहने से (पर पर्जय) पर पर्यायें (विलयतु) विला जायेंगी।
गहनु विलय अगहनु गहउ, भय सल्य संक विलयतु ।
अमिय पयोहर रमन पउ, अभय अमिय विलसंतु ॥१३ ॥ भावार्थ :- [हे आत्मन् ! (अगहनु) जिस स्वभाव को ग्रहण नहीं किया (गहउ) उसे ग्रहण करो, इससे (गहनु विलय) अनादिकाल से जो अज्ञान अधर्म आदि ग्रहण किया है, वह विला जायेगा (भय सलय संक विलयंत) भय शल्य शंकायें दूर हो जायेंगी (अमिय पयोहर) अमृत मयी सिंधु (पउ) निज पद में (रमन) रमण करो (अभय) भय रहित होकर (अमिय) अमृतमयी स्वरूप में (विलसंतु) विलास करो।
सहनु विलय जिन सहनु सहिउ, सहिय न्यान उवएस ।
धरनु धरिउ जिन धरनु जिन, पर्जय भय नंत विलंतु ॥१४॥ भावार्थ:-हे आत्मन् !] (जिन) वीतरागता (सहिउ) सहित रहो (सहनु) इसी को सहन अर्थात्