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श्री ममलपाइड जी फूलना-४
[स्वभाव साधना करो] (सरनि न कम्मु स उत्तु) कर्म आश्रय करने के योग्य नहीं कहे गए हैं (विमल सुनिर्मल भावह) विमल निर्मल स्वभाव में (सहियो) लीन रहने से (तुरंतु) तत्क्षण (सिवपुरि गमनु) मोक्षपुरी को गमन होता है।
ध्यावहु फूलना का सारांश ध्यावहु फूलना, आचार्य प्रवर श्रीमद् जिन तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज द्वारा रचित श्री भय षिपनिक ममलपाहुड जी ग्रन्थ की चौथी फूलना है। इस फूलना में गुरु और परम गुरु का ध्यान करने की प्रेरणा दी गई है तथा धर्म और कर्म का रहस्य स्पष्ट किया गया है। ध्यावहु का अर्थ है ध्यान करो। श्री गुरु तारण तरण स्वामी जी ने श्री श्रावकाचार जी, श्री ज्ञान समुच्चयसार जी, श्री उपदेश शुद्ध सार जी आदि ग्रन्थों में व्यवहार से वीतरागी निर्ग्रन्थ भावलिंगी साधु को गुरु और अरिहंत परमात्मा को परम गुरु कहा है। साधु में आचार्य उपाध्याय साधु तीनों परमेष्ठी गर्भित हो जाते हैं। एकाग्रचित्त से गुणों का चिंतन करते हुए इनका ध्यान करने से आत्म बल बढ़ता है, संसार के दुःखों से मुक्त होने की भावना प्रगाढ़ होती है।
निश्चय से अंतरात्मा गुरु है। अंतरात्मा स्वभाव से अथवा निश्चय से परमात्मा है। आचार्य कहते हैं निज अंतरात्मा का तथा अंतरात्मा में ही परमात्मा का निवास है उसका ध्यान करो। गुरु और परम गुरु सम्यक्ज्ञानी हैं। जीव को संसार सागर से पार उतारने में समर्थ हैं। वीतरागी साधु सच्चे गुरु लकड़ी की नौका की तरह स्वयं पार हो जाते हैं और अन्य भव्य जीवों को संसार सागर से पार होने में निमित्त होते हैं। परम गुरु तीर्थंकर परमात्मा ने जगत के समस्त जीवों को उपदेश दिया है कि निर्भय होकर शुद्धात्म स्वरूप का आश्रय लेकर ममल स्वभाव की साधना करो। षट्कमल की योग साधना से ममल स्वरूप का ध्यान करने वाला योगी साधक सहजानंद में रहता है। परम अक्षर अर्थात् कभी क्षरण नहीं होने वाले परम आनंदमयी स्वभाव में रहना धर्म है। विभाव में रहना कर्म है। जब जीव विभावों से युक्त होता है तब कर्म बंध होता है। आत्मा स्वभाव से ज्ञानमयी है जबकि कर्म जड़ हैं। द्रव्य कर्म से भाव कर्म होते हैं तथा भाव कर्म से द्रव्य कर्म बंधते हैं अतः कर्म से ही कर्म बंधते हैं। जैसे - गाय के गले की रस्सी, रस्सी में बंधती है उसी प्रकार कर्म का विज्ञान है।
विभावों के निमित्त से उत्पन्न होने वाले कर्म स्वभाव में लीन होने से निर्जरित होते हैं। दर्शनोपयोग की महिमा बतलाते हुए आचार्य कहते हैं चक्षु दर्शन अचक्षु दर्शन अवधिदर्शन पूर्वक ज्ञान विज्ञानमयी स्वभाव में रहने से पर्यायें विलय हो जाती हैं, कर्म क्षय हो जाते हैं। अतः हे आत्मन् ! अपने सर्वज्ञ स्वरूप निज पद का अनुभव करो। स्वभाव ही शरणभूत है, कर्म आश्रय लेने योग्य नहीं हैं। अपने विमल निर्मल स्वभाव में रहने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
प्रश्नोत्तर प्रश्न १ - भव संसार पार उतारने में कौन समर्थ है? उत्तर - इस लोक में निश्चय से सर्वोत्कृष्ट परम गुरू मेरा ज्ञानमयी अंतरात्मा है और व्यवहार से सच्चे
गुरू निर्ग्रन्थ भावलिंगी साधु हैं जो स्वयं तिरने के साथ-साथ भव्य जीवों को भव संसार से
पार उतारने में समर्थ हैं। प्रश्न २ - आप तिरें पर तारें का क्या अर्थ है ? उत्तर - भव सागर से जो स्वयं तिरते हैं और दूसरों को तारते हैं अर्थात् मोक्ष का मार्ग बताते हैं यही