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श्री ममलपाहुड़ जी फूलना - ४ (परम निरंजन) त्रिकाल शुद्ध (ममल भाव) ममल स्वभाव में रहने से (सिव सिद्धी) मोक्ष की प्राप्ति होती है।
दर्सन सहियो दिस्टि अन्मोयह, परिनै न्यान सहाउ ।
परमानह सो चरनु उपज्जै, अन्मोयह ममल सहाउ ॥ १२ ॥ भावार्थ :-(सहाउ) स्वभाव (दिस्टि) दृष्टि (सहियो) सहित होना (अन्मोयह) आत्म तत्त्व को स्वीकार करना (दर्सन) सम्यग्दर्शन है [स्वभाव रूप] (परिनै) परिणत रहना (न्यान) सम्यग्ज्ञान है (परमानह) प्रमाण [सम्यग्ज्ञान] पूर्वक (अन्मोयह ममल सहाउ) ममल स्वभाव में लीन होने से [जो] (उपज्जै) उत्पन्न होता है (सो) वह (चरनु) सम्यक्चारित्र है।
चय अचयह अवहि जु सहियो, न्यान विन्यान संजुत्तु ।
कम्मु उपत्तिहि कम्मु जु विलियो, न्यान अन्मोय स उत्तु ॥ १३ ॥ भावार्थ :- [हे आत्मन् !] (चष्य अचष्यह अवहि जु सहियो) चक्षु, अचक्षु, अवधि दर्शन सहित (न्यान विन्यान संजुत्त) ज्ञान विज्ञान स्वभाव में लीन रहो (ज) जो (कम्मु उपत्तिहि) कर्म उदय में आते हैं (कम्मु) वे कर्म (विलियो) विलय होते जाते हैं (न्यान अन्मोय) ज्ञान स्वभाव की अनुमोदना करो (स उत्त) यही जिनेन्द्र भगवान के वचन हैं।
जैतह तह जानु सहावह, मनपर्जय न्यान सुदिट्ठी ।
पर परजय विलयंतु सहज सुइ, न्यान विन्यान सु इट्ठी ॥ १४ ॥ भावार्थ :- (जानु सहावह) ज्ञान स्वभाव (जैवंतह) जयवंत हो (सु दिट्ठी) स्वभाव दृष्टि से (मनपर्जय न्यान) मनःपर्यय ज्ञान (तह) तथा (सु इट्ठी) अपने इष्ट (न्यान विन्यान) ज्ञान विज्ञानमयी स्वभाव के बल से (पर परजय) पर पर्याय (सहज सुइ) सहज ही (विलयतु) विलय हो जाती हैं।
पद विदह सर्वन्य सु सहियो, अर्थह कमल सहाउ ।
कल लंक्रित कम्मु जु गलियो, सहजे निर्मल ममल सहाउ ॥ १५॥ भावार्थ :- (सर्वन्य) सर्वज्ञ स्वरूप (सु) निज (पद) पद की (विंदह) अनुभूति करो (अर्थह) प्रयोजनीय (कमल सहाउ) ज्ञायक स्वभाव के (सहियो) आश्रय रहो (सहजे निर्मल ममल सहाउ) सहज निर्मल ममल स्वभाव में रहने से (ज) जो (कम्मु) कर्म (कल लंक्रित) शरीर की प्राप्ति में कारण भूत हैं, वे (गलियो) गल जाते हैं।
दव्व कम्मु आवर्न ऊ पजै, घाइ कम्मु जिन उत्तु ।
भाव कम्मु नो कम्मह सहियो, न्यान अन्मोय विलयंतु ॥ १६ ॥ भावार्थ :- हे आत्मन् ! विभाव भावों में तन्मय होने से (दव्व कम्म) द्रव्य कर्मों के (आवर्न उपजै) आवरण उत्पन्न होते हैं [इनमें ज्ञानावरण आदि चार ] (घाइ कम्मु) घातिया कर्म हैं, जीव (भाव कम्मु) भाव कर्म [और] (नो कम्मह सहियो) नो कर्म सहित हो रहा है (जिन उत्तु) जिनेन्द्र भगवान कहते हैं कि (न्यान अन्मोय) ज्ञान स्वभाव में लीन होने से [तीनों प्रकार के कर्म (विलयंतु) क्षय हो जाते हैं।
न्यानी न्यान अन्मोय संजुत्त, सरनि न कम्मु स उत्तु ।
विमल सुनिर्मल भावह सहियो, सिवपुरि गमनु तुरंतु ॥ १७ ॥ भावार्थ :-(न्यानी) हे ज्ञानी ! (न्यान अन्मोय) ज्ञान स्वभाव की अनुमोदना में (संजुत्तु) रत रहो