________________
श्री ममलपाहुड़ जी फूलना - ४
१५२ चिदानन्द जिनु कहिउ परम जिनु, सुकिय सुभाव सुदिट्ठी।
अर्थति अर्थह कमलह सहियो, सहजनंद जिन दिट्ठी ॥ ६ ॥ भावार्थ :-(जिनु) हे अंतरात्मन् ! (परम जिनु) केवलज्ञानी जिनेन्द्र परमात्मा ने (कहिउ) कहा है कि तुम्हारा (चिदानंद) चिदानंदमयी (सुकिय) स्वकृत [अपने से ही किया हुआ] (सुभाव) स्वभाव है (सुदिट्ठी) इसको ही देखो (अर्थति अर्थह) प्रयोजनीय रत्नत्रयमयी (कमलह सहियो) ज्ञायक स्वभाव में रहो [और] (सहजनंद जिन दिट्ठी) सहजानंदमयी वीतराग स्वभाव पर दृष्टि रखो।
जिनवर उत्तउ सुद्ध परम जिनु, मर्म कम्मु सु जिनेई ।
जह जह समयह कम्मु उपज्जइ, न्यान अन्मोय षिपेई ॥ ७॥ भावार्थ :-(जिनवर उत्तउ) जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है कि [आत्मा] (सुद्ध परम जिनु) शुद्ध परम जिनस्वरूप है (मर्म कम्मुसु जिनेई) कर्मों का मर्म ऐसा जानो कि (जह जह समयह) जिस - जिस समय (कम्मु उपज्जइ) कर्म उपजते हैं [आश्रव बंध होता है,उस समय (न्यान अन्मोय षिपेई) ज्ञान स्वभाव का भान नहीं रहता है।
जह जह थानह कम्मु ऊपजइ, कम्मह कम्म सहाई ।
न्यान अन्मोयह तं तं विलियउ, मर्म कर्म सु जिनेई ॥ ८ ॥ भावार्थ :- (जह जह थानह) जिस - जिस स्थान समय में (कम्मु ऊपजइ) कर्म उत्पन्न होते हैं [आस्रव बंध होता है वहाँ (कम्मह कम्म सहाई) कर्म के बंध में कर्म ही सहकारी हैं [अर्थात् द्रव्य कर्म से भाव कर्म होते हैं और भाव कर्म से द्रव्य कर्म बंधते हैं, कर्म से ही कर्म बंधते हैं] (न्यान अन्मोयह) [जैसे - जैसे] ज्ञान स्वभाव की अनुमोदना होती है (तं तं विलियउ) वैसे - वैसे क्षय होते जाते हैं (मर्म कर्म सु जिनेई) कर्म का मर्म इतना ही जानो।
परम जिन परमण्यरु गहिओ, परमानंद सहाई ।
परम सुभावह न्यान विन्यानह, केवल सहियो सोई ॥ ९ ॥ भावार्थ :- हे आत्मन् ! (परमानंद सहाई) परमानंद स्वभावी (परम जिन) परमात्म स्वरूप (परमष्यस) परम अक्षर [अविनाशी] स्वभाव को (गहिओ) ग्रहण करो (न्यान विन्यानह) ज्ञान विज्ञान पूर्वक (परम सुभावह) श्रेष्ठ स्वभाव में रहो (सोई) यही (केवल सहियो) केवलज्ञान को प्रगट करने का उपाय है।
धम्मु जु धरियउ जिनवर उत्तउ,न्यान विन्यान सुभाउ ।
जह जह कम्मु उपति स दिट्ठी, तह तह षिपन सहाउ ॥ १०॥ भावार्थ:-(जिनवर उत्तउ) जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहे हुए (धम्मु) धर्म को (धरियउ) धारण करो (ज) जो (न्यान विन्यान सुभाउ) ज्ञान विज्ञान स्वभाव में लीनता रूप है (जह जह कम्मु) जिस - जिस समय (उपति स दिट्ठी) उदय रूप अनुभव में आता है (तह तह षिपन) उस - उस समय क्षय भी होता जाता है, कर्मों का ऐसा गलन (सहाउ) स्वभाव है।
परम धम्मु परमप्पय सहियो, परम भाउ उवलद्धी ।
परम निरंजनु अंजन रहिओ, ममल भाव सिव सिद्धी ॥ ११॥ भावार्थ :-(परमप्पय सहियो) परमात्म पद का बोध जाग्रत होना (परम भाउ) परम पारिणामिक भाव की (उवलद्धी) उपलब्धि करना (परम धम्मु) उत्तम धर्म है (अंजन रहिओ) कर्म मलों से रहित