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________________ श्री ममलपाहुड़ जी फूलना ४ १५१ २ - ध्यावहु फूलना (फूलना क्र. ४) (विषय : अंतरात्मा गुरु और परमात्मा परम गुरु का ध्यान करने की प्रेरणा, धर्म - कर्म का मर्म ) ध्यावहु रे गुरु, गुरह परम गुरु, भव संसार निवारै । न्यान विन्यानह केवल सहियो, आप तिरे पर तारै ॥ १ ॥ ॥ आचरी ॥ भावार्थ : - • (ध्यावहु रे गुरु) गुरु का ध्यान करो (गुरह परम गुरु) गुरु और परम गुरु [जीवों को] (भव संसार निवारै) संसार सागर से पार लगाने वाले हैं [गुरु] (न्यान विन्यानह) ज्ञानविज्ञान के धारी [और परम गुरु ] (केवल) केवलज्ञान (सहियो) सहित होते हैं जो (आप तिरे) स्वयं तिरते हैं (पर तारै) अन्य जीवों को भी तारते हैं । परम गुरह उवएसिउ लोयह, न्यान विन्यानह भेउ । भय विनासु भव्वु तं मुनि है, उव उवनउ दाता देउ ॥ २ ॥ भावार्थ :- (परम गुरह) परम गुरु परमात्मा (लोयह) जगत के जीवों को (उवएसिउ) उपदेश देते हैं कि (भव्वु) हे भव्य जीवो ! (न्यान विन्यानह) ज्ञानविज्ञानमयी स्वभाव का ( भेउ) वरण करो (तं मुनि है) साधु पद को धारण करो, इससे (भय विनासु) भय विनस जायेंगे [और] (उव) ओंकारमयी (दाता देउ) परमानंद का दाता देव पद (उवनउ) प्रगट हो जायेगा । देउ उर्वनउ दिट्ठ उ दीन्हउ, लोयालोय उवएसु । परम देउ परम सुइ उवने, परम ममल सुपरसु ॥ ३ ॥ भावार्थ :- (देउ) देव स्वरूप [जो] (उवंनउ) उत्पन्न हुआ है (दिट्ठउ दीन्हउ) दिखाई दिया है [अनुभव में आया है, इसे ] (लोयालोय) लोकालोक को जानने वाला (उवएसु) कहा गया है (परम सुइ) स्वयं का श्रेष्ठ (परम देउ) परम देव स्वभाव (उवने) उदित हुआ है, जो (परम) परम (सुपएस) शुद्ध प्रदेशी (ममल) ममल स्वभावी है । परम देउ परमप्पा सहियो, नंतानंत सु दिट्ठी । गुपित विन्यान उवंनउ, ममल दिस्टि परमिस्टी ॥ ४ ॥ भावार्थ :(परम देउ परमप्पा) परम देव परमात्मा (नंतानंत) अनंत चतुष्टय (सहियो) सहित (सु दिट्ठी) अपने में लीन हैं, जिन्होंने (नंत गुपित विन्यान उवंनउ) अनंत गुप्त विज्ञान को उत्पन्न कर लिया है (ममल दिस्टि) जिनकी ममल स्वभाव पर दृष्टि है, वे [परम पद में स्थित ] (परमिस्टी) परमेष्ठी हैं । जिन उवएसिउ भव्यह लोयह, अर्थति अर्थह जोउ । षट् कमलह तं विमल सुनिर्मल, जिम सूषम कम्म गलेउ ॥ ५ ॥ भावार्थ :- (जिन) जिनेन्द्र परमात्मा ने (लोयह) जगत के (भव्यह) भव्य जीवों को (उवएसिड) उपदेश दिया है कि [अपने] (अर्थति अर्थह) प्रयोजनीय रत्नत्रयमयी स्वभाव को (जोउ) संजोओ (तं विमल सुनिर्मल) विमल निर्मल स्वभाव का ( षट् कमलह) षट्कमल के माध्यम से ध्यान करो (जिम) जिससे (सूषम कम्म) सूक्ष्म कर्म (गलेउ) गल जायेंगे ।
SR No.009715
Book TitleGyanodaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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