________________
प्रश्न ३- जिनेन्द्र परमात्मा ने क्या कहा है? उत्तर - जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है कि आत्मा त्रिकाल शुद्ध सिद्ध स्वरूपी ममल स्वभावी है। प्रश्न ४ - शुद्धात्मा की अनुभूति कैसे होती है? उत्तर - निज शुद्धात्मा परम निरंजन परमात्म सत्ता स्वरूप है ऐसे श्रद्धान सहित भेदविज्ञान पूर्वक
निज शुद्धात्मा की अनुभूति होती है। प्रश्न ५ - परमात्म पद कैसे प्राप्त होता है ? उत्तर - अपने आत्म स्वरूप की अनुभूति पूर्वक रत्नत्रयमयी अखंड अभेद स्वभाव में लीन होने से
परमात्म पद प्राप्त होता है। प्रश्न ६ - देवत्व पद को कौन प्राप्त करते हैं ? उत्तर - जो भव्य जीव भयों का नाश कर अभय होकर परमानंदमयी शुद्ध स्वभाव का आश्रय लेकर
परम निरंजन ममल स्वभाव का चिंतन मनन और आत्मध्यान धारण करते हैं, वही भव्य
जीव देवत्व पद को प्राप्त करते हैं। प्रश्न ७ - अरिहंत पद कब प्रगट होता है? उत्तर - मुक्तिमार्ग का पथिक, रत्नत्रय पद का धारी, क्षायिक सम्यक्त्वी जीव मुनि होकर सातवें अप्रमत्त
गुणस्थान तक धर्म ध्यान का अभ्यास पूर्ण करता है। पश्चात् क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर दसवें सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान के अंत में चारित्र मोहनीय का सर्व प्रकार क्षय करके बारहवें गुणस्थान के अंत में ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अंतराय कर्म का अभाव कर चारों घातिया कमों को क्षय करके अनंत चतुष्टय प्राप्त करता है। तब वही तेरहवें गुणस्थानवती सयोग
केवली अरिहंत परमात्मा होता है। प्रश्न८ - मुक्ति को देने वाला कौन है? उत्तर - जिनवाणी के शब्द पढ़ने मात्र से मुक्ति नहीं मिलती। शब्द जिस ज्ञायक स्वभाव की ओर
संकेत करते हैं वहाँ दृष्टि देने से मुक्ति मिलती है अर्थात् ज्ञायक दशा प्रगट होती है। ज्ञायक स्वभाव में रमणता से आनंद का अनुभव होता है और यह ज्ञायक स्वभाव ही मुक्ति को देने
वाला है। प्रश्न ९ - परम पारिणामिक भाव के आश्रय से क्या लाभ है? उत्तर - जो निर्मल है, परिपूर्ण है, परम निरपेक्ष है, ध्रुव है और त्रैकालिक सामर्थ्यवान है ऐसे परम
पारिणामिक भाव स्वरूप अखंड परमात्म द्रव्य का आश्रय करने से अनंत निर्मल पर्यायें अंतर में स्वयं खिल उठती हैं। सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, सच्चा मुनिपना आता है, अनंत चतुष्टय
प्रगट होता है, सिद्ध पद की प्राप्ति होती है। प्रश्न १०- आचार्य श्री जिन तारण स्वामी का ममल पाहुड़ ग्रंथ कहने का क्या उद्देश्य था ? उत्तर - आचार्य श्री जिन तारण स्वामी को अपने ममल स्वभाव के आश्रय से पर्याय में जो शुद्धता
प्रगट हुई, आनंद प्रगट हुआ। उसके बहुमान पूर्वक स्वरूप लीनता में निमित्त रूप से बाधक चारित्र मोहनीय कर्म के उदय के निमित्त से होने वाले भयों का अभाव करना, अभय होना, ममल स्वभाव में लीन रहना, इस ग्रंथ की रचना का मुख्य उद्देश्य था।