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________________ श्री ममलपाहुड़ जी फूलना - १ दिप्त दिप्ति तं दिस्ट समु, दिप्त दिस्ट सम भेउ । दिस्टि सब्द विवान सुइ, उत्पंनउ दाता देउ ॥ ६ ॥ भावार्थ :- (दिप्त दिप्ति तं) सम्यग्ज्ञान से दैदीप्यमान आत्मस्वरूप को (दिस्ट समु) प्रति समय देखो (दिप्त दिस्ट सम) सम्यग्दर्शन ज्ञान पूर्वक सम भाव [वीतराग भाव] का (भेउ) वरण करो (सुइ) स्व स्वभाव पर (दिस्टि) दृष्टि रखना (सब्द विवान) शब्द विवान है [जो] (दाता देउ) परमानन्द को देने वाले देवत्व पद को (उत्पंनउ) उत्पन्न करता है। दिप्त दिस्ट सुइ नंत मुनि, कमल इस्टि परमिस्टि । सुर्य लब्धि तं रयन पउ, दिपि नंत चतुस्टै संजुत्तु ॥ ७ ॥ भावार्थ :- (मुनि) भाव लिंगी साधु (सुइ नन्त) अपने अनंत चतुष्टमयी (दिप्स) दिव्य प्रकाश को (दिस्ट) देखते हैं [अपने] (कमल इस्टि) इस्ट ज्ञायक स्वभाव के द्वारा (रयन) रत्नत्रयमयी (परमिस्टि) परमेष्ठी (पउ) पद की साधना करते हुए (सुयं) स्वयं (तं नंत चतुस्टै) अनंत चतुष्टय को (लब्धि) प्राप्त करके (दिपि) दैदीप्यमान स्वरूप में (संजुत्त) लीन हो जाते हैं। अंगदि अंगह दिपि दिस्ट मउ, सब्द हिययार संजुत्तु । अर्थ तिअर्थ जु कमल रुइ, गिर दिप्त दिस्टि संजुत्तु ॥ ८ ॥ भावार्थ :-(ज) जो (अंगदि अंगह) अंग सर्वांग में (दिपि) दिव्य प्रकाश (मउ) मयी स्वभाव है, इसे (दिस्ट) देखो (सब्द हिययार) हितकारी जिनवचनों की आराधना में (संजुत्त) संलग्न रहो (अर्थ प्रयोजनीय (तिअर्थ) रत्नत्रयमयी (कमल रुइ) कमल स्वभाव की रुचि सहित (दिप्त दिस्टि) ज्ञान से प्रकाशमान स्वभाव पर दृष्टि रखते हुए (संजुत्तु) इसी में लीन रहो (गिर) यही जिन वचन हैं। दिप्ति दिस्टि सुइ सब्द मउ, हिय हुवयार संजुत्तु। अर्क विंद तं रमन पउ, उव उवनउ दाता देउ ॥ ९ ॥ भावार्थ :- [हे आत्मन् !] (सुइ सब्द मउ) स्व स्वभाव को दर्शाने वाले जिन वचनों को स्वीकार करके (दिप्ति) ज्ञान से प्रकाशमान स्वभाव पर (दिस्टि) दृष्टि रखो (हिय) हृदय में (हुवयार) उत्साह पूर्वक (संजुत्त) आराधना करो तुमने] (अर्क विंदतं) ज्ञायक दशा को (पउ) प्राप्त कर लिया है (रमन) इसी में रमन करो (उव) शुद्धात्म तत्त्व के आश्रय से (दाता देउ) आनंद को देने वाला देव पद [अरिहंत सिद्ध पद] (उवनउ) प्रगट हो जाता है। उव उवन उवन हिययार पउ, सहयार दिप्ति संजोई। न्यान विन्यान जु दिस्टि मउ, दिपि दिस्टि देइ सुइ देउ ॥ १०॥ भावार्थ :- [हे आत्मन् !] (उव) शुद्धात्म तत्त्व का (उवन) उदय हो रहा है (हिययार पउ) यही हितकारी पद है (उवन) इसी का अनुभवन करो (सहयार) सम्यक्चारित्र के लिए (दिप्ति संजोई) दिव्य ज्योति स्वरूप को संजोओ (जु) यदि (दिस्टि) दृष्टि (न्यान विन्यान) ज्ञान विज्ञान (मउ) मयी हो जाये [उपयोग और स्वभाव में भेद न रहे तब] (दिपि दिस्टि) ज्ञान दर्शनमयी स्वभाव (सुइ) स्वयं ही (देउ) देव पद (देइ) देता है अर्थात् स्वभाव में लीन होने पर परमात्म पद प्रगट होता है। जं जं उवन सहाव जिनु, दिपि दिस्टि उवन उव उत्तु । सब्द उनउ उवन मउ, उव उवन दिस्टि दर्सतु ॥ ११ ॥ भावार्थ :- हे आत्मन् (जंज) जैसे- जैसे (दिपि) प्रकाशमान (उव) ओंकारमयी शुद्धात्मा
SR No.009715
Book TitleGyanodaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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