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छहढाला - छटवीं ढाल
जबलौं न रोग जरा गहै, तबलौं झटिति निज हित करौ ॥ १४ ॥ अन्वयार्थ :- (बड़भागि) जो महा पुरुषार्थी जीव (यों) इस प्रकार (मुख्योपचार) निश्चय और व्यवहार (दुभेद) ऐसे दो प्रकार के (रत्नत्रय) रत्नत्रय को (धरै अरु धरेंगे) धारण करते हैं और करेंगे(ते) वे (शिव) मोक्ष (लहैं) प्राप्त करते हैं और (तिन) उन जीवों का (सुयश-जल) सुकीर्तिरूपी जल (जगमल) संसाररूपी मैल का (हरै) नाश करता है (इमि) ऐसा (जानि) जानकर (आलस) प्रमाद [स्वरूप में असावधानी] (हानि) छोड़कर (साहस) पुरुषार्थ (ठानि) करने का संकल्प कर (यह) यह (सिख) शिक्षा-उपदेश (आदरौ) ग्रहण करो कि (जब लौ) जब तक (रोग जरा) रोग या वृद्धावस्था (न गहै) न आये (तबला) तब तक (मटिति) शीघ्र (निज हित) आत्मा का हित (करौ) कर लेना चाहिये।
अन्तिम सीख यह राग आग दहै सदा, तातै समामृत सेइये । चिर भजे विषय कषाय अब तो, त्याग निज पद बेइये ॥ कहा रच्यो पर पद में, न तेरो पद यहै, क्यों दुख सहै ।
अब 'दौल'! होउ सुखी स्वपद रचि, दाव मत चूको यहै ॥ १५ ॥ अन्वयार्थ :- (यह) यह (राग आग) रागरूपी अग्नि (सदा) अनादिकाल से निरन्तर जीव को (दहै) जला रही है, (ताते) इसलिये (समामृत) समतारूप अमृत का (सेइये) सेवन करना चाहिये (विषय कषाय) विषय-कषाय का (चिर भजे) अनादिकाल से सेवन किया है (अब तो) अब तो (त्याग) उसका त्याग करके (निजपद) आत्म स्वरूप को (बेइये जानना चाहिये प्राप्त करना चाहिये (पर पद में) पर पदार्थों में-परभावों में (कहा) क्यों (रच्यो) आसक्त [सन्तुष्ट हो रहा है ? (यहै) यह (पद) पद (तेरो) तेरा (न) नहीं है । तू (दुख) दुःख (क्यों) किसलिये (सहै) सहन करता है ? (दौल !) हे दौलतराम ! (अब) अब (स्वपद) अपने आत्मपद [सिद्ध पद में ] (रचि) लगकर (सुखी) सुखी (होउ) होओ ! (यह) यह (दाव) अवसर (मत चूको) न गवाओ !
ग्रन्थ-रचना का काल और उसमें आधार इक नव वसु एक वर्ष की तीज शुक्ल वैशाख । कर्यो तत्त्व उपदेश यह, लखि बुधजन की भाख ॥ लघु धी तथा प्रमादतें, शब्द अर्थ की भूल ।
सुधी सुधार पढ़ो सदा, जो पावो भव कूल ॥ १६ ॥ भावार्थ:- पंडित बुधजनकृत छहढाला के कथन का आधार लेकर मैंने (दौलतराम ने) विक्रम संवत् १८९१ वैशाख शुक्ला ३ (अक्षय तृतीया) के दिन इस छहढाला ग्रन्थ की रचना की है। मेरी अल्पबुद्धि तथा प्रमादवश उसमें कहीं शब्द की या अर्थ की भूल रह गई हो तो बुद्धिमान उसे सुधारकर पढ़ें, ताकि जीव संसार समुद्र को पार करने में शक्तिमान हो।
प्रश्नोत्तर प्रश्न १ - भाव लिंगी मुनि किसे कहते हैं? उत्तर - तीन कषाय चौकड़ी के अभाव रूप जिनको शुद्ध परिणतिप्रगट हुई है, जो निश्चय सम्यग्दर्शन
ज्ञान सहित एकाग्रता पूर्वक स्वरूप में रमण करते हैं, जो छटवें-सातवें गुणस्थानवर्ती हैं उन्हें भाव लिंगी मुनि कहते हैं।