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छहढाला - छटवीं ढाल
१३८ होता] (तबही) वह स्वरूपाचरणचारित्र प्रगट होने के पश्चात् जब (शुकल ध्यानाग्नि करि) शुक्ल ध्यानरूपी अग्नि द्वारा (चउघाति विधि कानन) चार घातिया रूपी कर्मों का वन (दह्यो) जल जाता है और (केवलज्ञानकरि) केवलज्ञान से (सब) तीन काल और तीन लोक में होने वाले समस्त पदार्थों तथा पर्यायों को (लख्यो) प्रत्यक्ष जान लेते हैं तब (भविलोक को) भव्य जीवों को (शिवमग) मोक्षमार्ग (कह्यो) बतलाते हैं।
सिद्धदशा (सिद्ध स्वरूप) का वर्णन पुनि घाति शेष अघाति विधि, छिनमांहि अष्टम भू वसैं । वसु कर्म विनसें सुगुण वसु, सम्यक्त्व आदिक सब लसैं ॥ संसार खार अपार पारावार तरि तीरहिं गये ।
अविकार अकल अरूप शुचि, चिद्रप अविनाशी भये ॥ १२ ॥ अन्वयार्थ :- (पुनि) केवलज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् (शेष) शेष चार (अघाति विधि) अघातिया कर्मों का (घाति) नाश करके (छिनमांहि) कुछ ही समय में (अष्टम भू) आठवीं पृथ्वी-ईषत् प्राग्भारमोक्ष क्षेत्र अर्थात् लोक के अग्रभाग में (वसैं) निवास करते हैं [उनको] (वसु कर्म) आठ कर्मों का (विनसे) नाश हो जाने से (सम्यक्त्व आदिक) सम्यक्त्वादि (सब) समस्त (वसु सुगुण) आठ मुख्य गुण (लसैं) शोभायमान होते हैं। ऐसे सिद्ध होने वाले मुक्तात्मा] (संसार खार अपार पारावार) संसाररूपी खारे तथा अगाध समुद्र को (तरि) पार करके (तीरहिं) किनारे पर (गये) पहुँच जाते हैं और (अविकार) विकाररहित (अकल) शरीररहित (अरूप) रूपरहित (शुचि) शुद्ध-निर्दोष (चिद्रूप) दर्शन-ज्ञान-चेतनास्वरूप तथा (अविनाशी) नित्य- स्थायी (भये) होते हैं।
मोक्षदशा का वर्णन निजमाहि लोक अलोक गुण, परजाय प्रतिबिम्बित थये । रहिहै अनन्तानन्त काल, यथा तथा शिव परिणये ॥ धनि धन्य हैं जे जीव, नरभव पाय यह कारज किया।
तिनही अनादि भ्रमण पंच प्रकार तजि वर सुख लिया ॥ १३ ॥ अन्वयार्थ :- (निजमाहि) उन सिद्ध भगवान के आत्मा में (लोक-अलोक) लोक तथा अलोक के (गुण परजाय) गुण और पर्यायें (प्रतिबिम्बित थये) झलकने लगते हैं [अर्थात् ज्ञात होने लगते हैं वे (यथा) जिस प्रकार (शिव) मोक्षरूप से (परिणये) परिणमित हुए हैं (तथा) उसी प्रकार (अनन्तानन्त काल) अनन्त-अनन्त काल तक (रहिहै) रहेंगे । (जे) जिन (जीव) जीवों ने (नरभव पाय) पुरुष पर्याय प्राप्त करके (यह) यह मुनिपद आदि की प्राप्ति रूप (कारज) कार्य (किया) किया है, वे जीव (धनि धन्य हैं) महान धन्यवाद के पात्र हैं और (तिनही) उन्हीं जीवों ने (अनादि) अनादिकाल से चले आ रहे (पंच प्रकार) पाँच प्रकार के परावर्तनरूप (भ्रमण) संसार परिभ्रमण को (तजि) छोड़कर (वर) उत्तम (सुख) सुख (लिया) प्राप्त किया है।
रत्नत्रय का फल और आत्महित में प्रवृत्ति का उपदेश मुख्योपचार दु भेद यों बड़भागि रत्नत्रय धरै । अरु धरेंगे ते शिव लह, तिन सयश जल जग मल हरॆ ॥ इमि जानि आलस हानि साहस ठानि, यह सिख आदरौ ।