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________________ छहढाला - छटवीं ढाल स्वरूपाचरणचारित्र (शुद्धोपयोग ) का वर्णन जहें ध्यान ध्याता ध्येय को न विकल्प, वच भेद न जहाँ । चिद्भाव कर्म, चिदेश करता, चेतना किरिया तहाँ ॥ तीनों अभिन्न अखिन्न शुध उपयोग की निश्चल दशा । प्रगटी जहाँ दृग ज्ञान व्रत तीनधा एकै लसा ।। ९ ।। १३७ , अन्वयार्थ :- (जहँ) जिस स्वरूपाचरण चारित्र में (ध्यान) ध्यान ( ध्याता) ध्याता और (ध्येय को) ध्येय - इन तीन के (विकल्प) भेद (न) नहीं होते तथा (जहाँ जहाँ (वच) वचन का (भेद न) विकल्प नहीं होता (तहाँ) वहाँ तो (चिद्भाव) आत्मा का स्वभाव ही (कर्म) कर्म (चिदेश) आत्मा ही (करता) कर्ता (चेतना किरिया) चेतना क्रिया (तीनों) कर्ता, कर्म और क्रिया - यह तीनों (अभिन्न) भेदरहित एक (अखिन्न) अखण्ड [बाधारहित] हो जाते हैं और (शुद्ध उपयोग की) शुद्ध उपयोग की (निश्चल) निश्चल (दशा) पर्याय (प्रगटी) प्रगट होती है (जहाँ) जिसमें (दृग ज्ञान व्रत) सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र (ये तीनधा) यह तीनों (एकै) एकरूप - अभेदरूप से (लसा) शोभायमान होते हैं । स्वरूपाचरण चारित्र का लक्षण और निर्विकल्प ध्यान परमाण नय निक्षेप को न उद्योत अनुभव में दिखे । दृग ज्ञान सुख बलमय सदा, नहिं आन भाव जु मो बिखै ॥ मैं साध्य साधक मैं अबाधक, कर्म अरु तसु फलनितैं । चित् पिंड चंड अखंड सुगुणकरंड च्युत पुनि कलनितें ॥ १० ॥ अन्वयार्थ :- [उस स्वरूपाचरणचारित्र के समय मुनियों के] (अनुभव में) आत्मानुभव में (परमाण प्रमाण (नय) नय और (निक्षेप को) निक्षेप का विकल्प (उद्योत) प्रगट (न दिखै) दिखाई नहीं देता [परन्तु ऐसा विचार होता है कि] (मैं) मैं (सदा) सदा (दृग ज्ञान सुख बलमय) अनन्त दर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यमय हूँ (मो विखै) मेरे स्वरूप में (आन) अन्य राग द्वेषादि (भाव जु) भाव (नहिं) नहीं हैं, (मैं) मैं (साध्य) साध्य (साधक) साधक तथा (कर्म) कर्म (अरु) और (तसु) उसके (फलनितै) फलों के (अबाधक) विकल्प रहित (चित् पिंड) ज्ञान दर्शन चेतना स्वरूप (चंड) निर्मल तथा ऐश्वर्यवान (अखंड) अखंड (सुगुण करंड) सुगुणों का भंडार (पुनि) और (कलनितैं) अशुद्धता से (च्युत) रहित हूँ । स्वरूपाचरणचारित्र और अरिहंत दशा यों चिन्त्य निज में थिर भये, तिन अकथ जो आनंद लह्यो । सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा अहमिन्द्रकें नाहीं कह्यो । तब ही शुकल ध्यानाग्नि करि, चउघाति विधि कानन दह्यो । सब लख्यो केवलज्ञानकरि, भविलोक को शिवमग कह्यो ॥ ११ ॥ अन्वयार्थ [स्वरूपाचरणचारित्र में ] (यों) इस प्रकार (चिन्त्य) चिंतवन करके (निज में) आत्मस्वरूप में (थिर भये) लीन होने पर (तिन) उन मुनियों को (जो ) जो (अकथ) कहा न जा सके [ऐसा वचन से पार] (आनंद) आनन्द (लह्यो) होता है (सो) वह आनन्द (इन्द्र) इन्द्र को (नाग) नागेन्द्र को (नरेन्द्र) चक्रवर्ती को (वा अहमिन्द्र कैं) या अहमिन्द्र को (नाहीं कह्यो) कहने में नहीं आया [नहीं --
SR No.009715
Book TitleGyanodaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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