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छहढाला - छटवीं ढाल
अरि मित्र महल मसान कचन, काँच निन्दन थुति करन ।
अर्घावतारन असि प्रहारन में सदा समता धरन ॥ ६ ॥ अन्वयार्थ :- [वे वीतरागी मुनि (दिन में) दिन में (इकबार) एक बार (खड़े) खड़े रहकर और (निज पान में) अपने हाथ में रखकर (अलप) थोड़ा सा (आहार) आहार (ले) लेते हैं (कचलोंच) केशलोंच (करत) करते हैं (निज ध्यान में) अपने आत्मा के ध्यान में (लगे) तत्पर होकर (परिषह सौं) बाईस प्रकार के परिषहों से (न डरत) नहीं डरते [और] (अरि मित्र) शत्रु या मित्र (महल मसान) महल या श्मशान (कान काँच) सोना या काँच (निन्दन थुति करन) निन्दा या स्तुति करने वाले (अर्घावतारन) पूजा करने वाले और (असि प्रहारन) तलवार से प्रहार करने वाले उन सबमें (सदा) सदा (समता) समताभाव (धरन) धारण करते हैं।
मुनियों के तप, धर्म, विहार तथा स्वरूपाचरण चारित्र तप तपैं द्वादश, धरै वृष दश, रतनत्रय सेवै सदा । मुनि साथ में वा एक विचरै चहैं नहिं भवसुख कदा ॥ यों है सकल संयम चरित, सुनिये स्वरूपाचरन अब ।
जिस होत प्रगटै आपनी निधि, मिटै पर की प्रवृत्ति सब ॥ ७॥ अन्वयार्थ :- [वे वीतरागी मुनि सदा] (द्वादश) बारह प्रकार के (तप तपैं) तप करते हैं (दश) दस प्रकार के (वृष) धर्म को (धरै) धारण करते हैं [और] (रतनत्रय) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र का (सदा) सदा (सेबैं) सेवन करते हैं। (मुनि साथ में) मुनियों के संघ में (वा) अथवा (एक) अकेले (विचरै) विचरते हैं और (कदा) किसी भी समय (भवसुख) सांसारिक सुखों की (नहिं चहै) इच्छा नहीं करते। (यों) इस प्रकार (सकल संयम चरित) सकल संयम चारित्र (है) है (जिस) जिस चारित्र [स्वरूप में रमणतारूप चारित्र के (होत) प्रगट होने से (आपनी) अपने आत्मा की (निधि) ज्ञानादिक सम्पत्ति (प्रगटै) प्रगट होती है [तथा] (पर की) पर वस्तुओं की ओर की (सब) सर्व प्रकार की (प्रवृत्ति) प्रवृत्ति (मिटै) मिट जाती है। [अब ऐसे] (स्वरूपाचरन) स्वरूपाचरण चारित्र [का वर्णन] (सुनिये) सुनो।
स्वरूपाचरण चारित्र (शुद्धोपयोग) का वर्णन जिन परम पैनी सुबुधि छैनी, डारि अन्तर भेदिया । वरणादि अरु रागादितै निज भाव को न्यारा किया ॥ निज माहि निज के हेतु निजकर, आपको आपै गह्यो ।
गुण गुणी ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय मझार कछु भेद न रह्यो ॥ ८ ॥ अन्वयार्थ :- (जिन) जो वीतरागी मुनिराज (परम) अत्यन्त (पैनी) तीक्ष्ण (सुबुधि) सम्यग्ज्ञान अर्थात् भेदविज्ञान रूपी (छैनी) छैनी (डारि) डाल कर (अन्तर) अन्तरंग में (भेदिया) भेद करके (निज भाव को) आत्मा के वास्तविक स्वरूप को (वरणादि) वर्ण, रस, गन्ध तथा स्पर्श रूप द्रव्यकर्म से (अरु) और (रागादित) राग-द्वेषादिरूप भाव कर्म से (न्यारा किया) भिन्न करके (निजमाहि) अपने आत्मा में (निज के हेतु) अपने लिये (निजकर) अपने द्वारा (आपको) आत्मा को (आप) स्वयं अपने से (गह्यो) ग्रहण करते हैं तब (गुण) गुण (गुणी) गुणी (ज्ञाता) ज्ञाता, आत्मा में (ज्ञेय) ज्ञान का विषय और (ज्ञान मैंझार) ज्ञान में (कुछ भेद न रह्यो) किंचित्मात्र भेद [विकल्प] नहीं रहता।