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________________ छहढाला - छटवीं ढाल करते हुए मात्र (तप) तप की (बढ़ावन हेतु) वृद्धि करने के हेतु से [आहार के] (ज्यालीस) छ्यालीस (दोष बिना) दोषों को दूर करके (अशन को) भोजन को (लैं) ग्रहण करते हैं। (शुचि) पवित्रता के (उपकरण) साधन कमण्डल को (ज्ञान) ज्ञान के (उपकरण) साधन शास्त्र को [तथा] (संयम) संयम के (उपकरण) साधन पिच्छी को (लखिक) देखकर (गहै) ग्रहण करते हैं [और] (लखिकै) देखकर (धरै) रखते हैं [और] (तन) शरीर का (मल) विष्ठा (मूत्र) पेशाब (श्लेष्म) थूक को (निर्जन्तु थान) जीव रहित स्थान (विलोकि) देखकर (परिहरै) त्यागते हैं। मुनियों की तीन गुप्ति और पाँच इन्द्रियों पर विजय सम्यक् प्रकार निरोध मन वच काय, आतम ध्यावते । तिन सुथिर मुद्रा देखि मृगगण उपल खाज खुजावते ॥ रस रूप गंध तथा फरस अरू शब्द शुभ असुहावने । तिनमें न राग विरोध पंचेन्द्रिय जयन पद पावने ॥ ४ ॥ अन्वयार्थ :- [वीतरागी मुनि (मन वच काय) मन, वचन, काया का (सम्यक् प्रकार) भलीभाँति (निरोध) निरोध करके, जब (आतम) अपने आत्मा का (ध्यावते) ध्यान करते हैं तब (तिन) उन मुनियों की (सुथिर) सुस्थिर शांत (मुद्रा) अवस्था (देखि) देखकर उन्हें (उपल) पत्थर समझकर (मृगगण) हिरन अथवा चौपाये प्राणियों के समूह (खाज) अपनी खाज खुजली को (खुजावते) खुजाते हैं। [जो] (शुभ) प्रिय और (असुहावने) अप्रिय [पाँच इन्द्रियों संबंधी] (रस) पाँच रस (रूप) पाँच वर्ण (गंध) दो गंध (फरस) आठ प्रकार के स्पर्श (अरू) और (शब्द) शब्द (तिनमें) उन सबमें (राग विरोध) राग या द्वेष (न) मुनि को नहीं होते [इसलिये वे मुनि (पंचेन्द्रिय जयन) पाँच इन्द्रियों को जीतने वाला अर्थात् जितेन्द्रिय (पद) पद (पावने) प्राप्त करते हैं। मुनियों के छह आवश्यक और शेष सात मूलगुण समता सम्हारें, थुति उचारें, वन्दना जिनदेव को । नित करें श्रुतिरति, करें प्रतिक्रम, तऊँ तन अहमेव को ॥ जिनके न न्हौन, न दंतधोवन, लेश अम्बर आवरन । भूमाहिं पिछली रयनि में कछु शयन एकासन करन ॥ ५॥ अन्वयार्थ :-वीतरागी मुनि (नित) सदा (समता) सामायिक (सम्हारै) सम्हाल कर करते हैं (थुति) स्तुति (उचारै) बोलते हैं (जिनदेव को) जिनेन्द्र भगवान की (वन्दना) वन्दना करते हैं (श्रुतिरति) स्वाध्याय में प्रेम (करें) करते हैं (प्रतिक्रम) प्रतिक्रमण (करें) करते हैं, (तन) शरीर की (अहमेव को) ममता को (तजै) छोड़ते हैं (जिनके) जिन मुनियों को (न्हौन) स्नान और (दंतधोवन) दाँतों को स्वच्छ करना (न) नहीं होता (अम्बर आवरन) शरीर ढंकने के लिए वस्त्र (लेश) किंचित् भी उनके (न) नहीं होता [और] (पिछलीरयनि में) रात्रि के पिछले भाग में (भूमाहिं ) धरती पर (एकासन) एक करवट (कछु) कुछ समय तक (शयन) शयन (करन) करते हैं। मुनियों के शेष गुण तथा राग द्वेष का अभाव इक बार दिन में लें आहार, खड़े अलप निज-पान में। कचलोंच करत न डरत परिषह सौं, लगे निज ध्यान में ॥
SR No.009715
Book TitleGyanodaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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