________________
छहढाला - छटवीं ढाल
छटवीं ढाल
(हरिगीतिका छन्द) अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य महाव्रत के लक्षण षट् काय जीव न हननतें, सब विध दरवहिंसा टरी । रागादि भाव निवारत', हिंसा न भावित अवतरी ॥ जिनके न लेश मृषा न जल, मृण हू बिना दीयो गहैं ।
अठदशसहस विध शील धर, चिद्ब्रह्म में नित रमि रहैं ॥ १ ॥ अन्वयार्थ :- (षट्काय जीव) छह काय के जीवों को (न हननते) घात न करने के भाव से (सब विध) सर्व प्रकार की (दरवहिंसा) द्रव्यहिंसा (टरी) दूर हो जाती है और (रागादि भाव) रागद्वेष, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि भावों को (निवारतें) दूर करने से (भावित हिंसा) भाव हिंसा भी (न अवतरी) नहीं होती (जिनके) उन मुनियों को (लेश) किंचित् (मृषा) झूठ (न) नहीं होता (जल) पानी और (मृण) मिट्टी (हू) भी (बिना दीयो) दिये बिना (न गहैं) ग्रहण नहीं करते [तथा] (अठदशसहस) अठारह हजार (विध) प्रकार के (शील)शील को- ब्रह्मचर्य को (धर)धारण करके (नित) सदा (चिद्ब्रह्म में)चैतन्यस्वरूप आत्मा में (रमि रहै) लीन रहते हैं।
परिग्रह त्याग महाव्रत, ईर्या समिति और भाषा समिति अंतर चतुर्दस भेद बाहिर, संग दसधा ते टलै' । परमाद तजि चौकर मही लखि, समिति ईर्या से चलें ॥ जग-सुहितकर सब अहितहर, श्रुति सुखद सब संशय हरैं।
भ्रमरोग हर जिनके वचन-मुखचन्द्र से अमृत झरै ॥ २ ॥ अन्वयार्थ :- [वे वीतरागी दिगम्बर जैन मुनि (चतुर्दस भेद) चौदह प्रकार के (अंतर) अन्तरंग तथा (दसधा ते) दस प्रकार के (बाहिर) बहिरंग (संग) परिग्रह से (टलैं) रहित होते हैं। (परमाद) प्रमाद-असावधानी (तजि) छोड़कर (चौकर) चार हाथ (मही) जमीन (लखि) देखकर (ई-) ईर्या (समिति तै) समिति से (चलैं) चलते हैं और (जिनके) जिन मुनिराजों के (मुखचन्द्र तें) मुख रूपी चन्द्र से (जग सुहितकर) जगत का सच्चा हित करने वाला तथा (सब अहितहर) सर्व अहित का नाश करनेवाला (श्रुति सुखद) सुनने में प्रिय लगे ऐसा (संशय) समस्त संशयों का (हरै) नाशक और (भ्रम रोगहर) मिथ्यात्वरूपी रोग को हरनेवाला (वचन अमृत) वचन रूपी अमृत (झरे) झरता है।
एषणा, आदान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापन समिति छयालीस दोष बिना सुकुल श्रावकतनै घर अशन को । लैं तप बढ़ावन हेतु, नहिं तन, पोषते तजि रसन को ॥ शुचि ज्ञान संयम उपकरण, लखिकै गहैं लखिमैं धरै।
निर्जन्तु थान विलोकि तन, मल मूत्र श्लेष्म परिहरै ॥ ३ ॥ अन्वयार्थ :- [वीतरागी मुनि (सकुल) उत्तम कुलवाले (श्रावकतनै) श्रावक के (घर) घर और (रसन को) छहों रस अथवा एक-दो रसों को (तजि) छोड़कर (तन) शरीर को (नहिं पोषते) पुष्ट न