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________________ छहढाला पाँचवी ढाल - १२९ ८- संवर भावना जिन पुण्य पाप नहिं कीना, आतम अनुभव चित दीना । तिनही विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके ॥ १० ॥ अन्वयार्थ :- (जिन) जिन्होंने (पुण्य) शुभभाव और (पाप) अशुभ भाव (नहिं कीना) नहीं किये, तथा मात्र (आतम) आत्मा के (अनुभव) अनुभव में [शुद्ध उपयोग में ] (चित) ज्ञान को (दीना) लगाया है (तिनही) उन्होंने ही (आवत) आते हुए (विधि) कर्मों को (रोके) रोका है और (संवर लहि) संवर प्राप्त करके (सुख) सुख का (अवलोके) साक्षात्कार किया है। ९ - निर्जरा भावना निज काल पाय विधि झरना, तासों निज काज न सरना । तप करि जो कर्म खिपावै, सोई शिवसुख दरसावै ॥ ११ ॥ अन्वयार्थ :- [जो] (निज काल) अपनी-अपनी स्थिति (पाय) पूर्ण होने पर (विधि) कर्म (झरना) खिर जाते हैं (तासों') उससे (निज काज) जीव का धर्मरूपी कार्य (न सरना) नहीं होता किन्तु (जो) [निर्जरा] (तप करि) आत्मा के शुद्ध प्रतपन द्वारा (कर्म) कर्मों का (खिपावै) नाश करती है [वह अविपाक अथवा सकाम निर्जरा] (सोई) वह (शिवसुख) मोक्ष का सुख (दरसावै) दिखलाती है। १० - लोक भावना किनहू न करौ न धरै को, षड् द्रव्यमयी न हरै को । सो लोकमांहि बिन समता, दुख सहै जीव नित भ्रमता ॥ १२ ॥ अन्वयार्थ :- [इस लोक को] (किनहू) किसी ने (न करौ) बनाया नहीं है (को) किसी ने (न धरै) टिका नहीं रखा है, (को) कोई (न हरै) नाश नहीं कर सकता [और यह लोक] (षड्द्रव्यमयी) छह प्रकार के द्रव्य स्वरूप है [छह द्रव्यों से परिपूर्ण है ] (सो) ऐसे (लोकमांहि) लोक में (बिन समता) वीतरागी समता बिना (नित) सदैव (भ्रमता) भटकता हुआ (जीव) जीव (दुख सहै ) दुःख सहन करता है । ११ - बोधिदुर्लभ भावना अंतिम ग्रीवकलों की हद, पायो अनन्त विरियां पद । पर सम्यग्ज्ञान न लाधौ, दुर्लभ निज में मुनि साधौ ॥ १३ ॥ अन्वयार्थ :- (अंतिम) अंतिम, नववें (ग्रीवकलौं की हद) ग्रैवेयक तक के (पद) पद (अनन्त विरियां) अनन्त बार (पायो) प्राप्त किये (पर) तथापि (सम्यग्ज्ञान) सम्यग्ज्ञान ( न लाधौ ) प्राप्त न हुआ (दुर्लभ) ऐसे दुर्लभ सम्यग्ज्ञान को (मुनि) मुनिराजों ने (निज में) अपने आत्मा में (साधौ) धारण किया है। १२ - धर्म भावना जो भाव मोहतें न्यारे, दृग ज्ञान व्रतादिक सारे । सो धर्म जबै जिय धारै, तब ही सुख अचल निहारे ॥ १४ ॥ अन्वयार्थ - (मोह तैं) मोह से (न्यारे) भिन्न (सारे) साररूप अथवा निश्चय (जो) जो (दृग ज्ञान व्रतादिक) दर्शन-ज्ञान- चारित्ररूप रत्नत्रय आदिक (भाव) भाव हैं (सो) वह (धर्म) धर्म कहलाता है । (जबै) जब (जिय) जीव (धारै) उसे धारण करता है (तब ही) तभी वह (अचल सुख ) अचल सुख -मोक्ष (निहारे) देखता है- प्राप्त करता है ।
SR No.009715
Book TitleGyanodaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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