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छहढाला - चौथी ढाल (ख) दर्शन की आराधना कब पूर्ण व प्रगट होती है ? उत्तर - दर्शन की आराधना क्षायिक सम्यक्त्व के पूर्ण होने पर प्रगट होती है। (ग) अतिचार से आप क्या समझते हैं? उत्तर - व्रतों के पालन करने की भावना होते हुए भी उसका एक देश भंग होना अतिचार है। (घ) पर्व चतुष्टय क्या है ? उत्तर - प्रत्येक माह की दो अष्टमी और दो चतुर्दशी पर्व चतुष्टय हैं। (ङ) क्या यह सत्य है ?
(१) ग्रहस्थ अवस्था में स्वसंवेदन ज्ञान होता है। (हाँ) (२) आत्मा को जानने में इन्द्रियाँ निमित्त हैं। (नहीं) (३) तिर्यंच अवस्था में आत्मा का अनुभव संभव है। (हाँ) (४) शुभ राग से अज्ञान अंधकार टल सकता है। (नहीं)
(५) अनुकूलता मिलने पर ही आत्म साधना हो सकती है। (नहीं) प्रश्न ३- दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
(क) चौथी ढाल का सारांश संक्षेप में लिखिये उत्तर -सम्यग्दर्शन के अभाव में जो ज्ञान होता है उसे कुज्ञान (मिथ्याज्ञान) कहा जाता है।
सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् वही सम्यग्ज्ञान कहलाता है। इस प्रकार यद्यपि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक साथ होते हैं तथापि उनके लक्षण भिन्न-भिन्न हैं और कारण कार्य भाव का अन्तर है अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान का निमित्त कारण है। स्वयं को और परवस्तुओं को स्वसन्मुखता पूर्वक यथावत् जाने वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है, उसकी वृद्धि होने पर अंत में केवलज्ञान प्राप्त होता है। सम्यग्ज्ञान के अतिरिक्त सुखदायक अन्य कोई वस्तु नहीं है और वही जन्म, जरा तथा मरण का नाश करता है । मिथ्यादृष्टि जीव को सम्यग्ज्ञान के बिना करोड़ों जन्म तक तप तपने से जितने कर्मों का नाश होता है उतने कर्म सम्यक्ज्ञानी जीव के त्रिगुप्ति से क्षणमात्र में नष्ट हो जाते हैं। पूर्व काल में जो जीव मोक्ष गये हैं, भविष्य में जायेंगे
और वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र से जा रहे हैं वह सब सम्यग्ज्ञान का प्रभाव है। जिस प्रकार मूसलाधार वर्षा वन की भयंकर अग्नि को क्षणमात्र में बुझा देती है उसी प्रकार यह सम्यग्ज्ञान विषय वासना को क्षणमात्र में नष्ट कर देता है। पुण्य-पाप के भाव जीव के चारित्रगुण की विकारी (अशुद्ध) पर्यायें हैं। वे रहँट के घड़ों की भाँति उल्टी-सीधी होती रहती हैं। उन पुण्य-पाप के फलों में जो संयोग प्राप्त होते हैं उनमें हर्ष विषाद करना अज्ञानता है। प्रयोजन भूत बात तो यह है कि पुण्य-पाप, व्यवहार और निमित्त की रुचि छोड़कर स्वसन्मुख होकर सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना चाहिये । आत्मा और परवस्तुओं का भेदविज्ञान होने पर सम्यग्ज्ञान होता है। इसलिये संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय (तत्त्वार्थ का अनिर्धार) का त्याग करके तत्त्व के अभ्यास द्वारा सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना चाहिये क्योंकि मनुष्य पर्याय, उत्तम श्रावक कुल और जिनवाणी का सुनना आदि सुयोग - जिस प्रकार समुद्र में डूबा हुआ रत्न हाथ नहीं आता उसी प्रकार यह शुभयोग बारंबार प्राप्त नहीं होते । ऐसा दुर्लभ सुयोग प्राप्त करके