________________
१२०
छहढाला - चौथी ढाल की (प्रमाण) मर्यादा (ठान) रखकर (तसु) उस (सीम) सीमा का (न नाखै) उल्लंघन न करना [सो दिव्रत है।
ऊर्य
उत्तर
बक्षिण
छन्द १२ पूर्वार्द्ध देशव्रत (देशावगाशिक) नामक गुणव्रत का लक्षण
ताहू में फिर ग्राम गली, गृह बाग बजारा ।
गमनागमन प्रमाण ठान अन,सकल निवारा ॥ १२ ॥ अन्वयार्थ :- (फिर) फिर (ताहू में) उसमें किन्हीं प्रसिद्ध-प्रसिद्ध] (ग्राम) गांव (गली) गली (गृह) मकान (बाग) उद्यान तथा (बजारा) बाजार तक (गमनागमन) जाने-आने का (प्रमाण) माप (ठान) रखकर (अन) अन्य (सकल) सबका (निवारा) त्याग करना [उसे देशव्रत अथवा देशावगाशिक व्रत कहते हैं। छन्द १२ उत्तरार्द्ध अनर्थदण्डव्रत के भेद और उनका लक्षण
काहू की धनहानि,किसी जय हार न चिन्तै । देय न सो उपदेश, होय अघ वनज कषी ते ॥ १२ ॥ कर प्रमाद जल भूमि वक्ष पावक न विराधै । असि धनु हल हिंसोपकरण नहिं दे यश लाधै ॥ राग-द्वेष-करतार, कथा कबहूँ न सुनीजै ।
और हु अनरथ दंड, हेतु अघ तिन्हें न कीजै ॥ १३ ॥ अन्वयार्थ :- १.(काह की) किसी के (धनहानि) धन के नाश का (किसी) किसी की (जय) विजय का [अथवा] (हार) किसी की हार का (न चिन्तै) विचार न करना [उसे अपध्यान अनर्थदंडव्रत कहते हैं ] २. (वनज) व्यापार और (कृषी तें) खेती से (अघ) पाप (होय) होता है । इसलिये (सो) उसका (उपदेश) उपदेश (न देय) न देना [उसे पापोपदेश अनर्थदंडव्रत कहा जाता है] (कर प्रमाद) प्रमाद से ३. (जल) जलकायिक (भूमि) पृथ्वीकायिक, (वृक्ष) वनस्पतिकायिक, (पावक) अग्निकायिक [और वायुकायिक जीवों का (न विराधै) घात न करना [सो प्रमादचर्या अनर्थदंडव्रत कहलाता है] ४. (असि) तलवार, (धनु) धनुष (हल) हल [आदि] (हिंसोपकरण) हिंसा होने में कारणभूत पदार्थों को (दे) देकर (यश) यश (नहिं लाधै) न लेना [सो हिंसादान अनर्थदंडव्रत कहलाता है] ५. (राग द्वेष करतार) राग और द्वेष उत्पन्न करने वाली (कथा) कथाएँ (कबहूँ) कभी भी (न सुनीजै) नहीं सुनना सो