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छहढाला - चौथी ढाल दूसरा (न) नहीं है [मात्र (ज्ञान घनघान) ज्ञानरूपी वर्षा का समूह (बुझावै) शान्त करता है।
पुण्य-पाप में हर्ष-विषाद का निषेध और तात्पर्य की बात पुण्य पाप फलमाहिं हरख बिलखौ मत भाई। यह पुद्गल परजाय उपजि विनसै फिर थाई ॥ लाख बात की बात यही निश्चय उर लाओ।
तोरि सकल जग दंद-फंद नित आतम ध्याओ ॥ ९ ॥ अन्वयार्थ :- (भाई) हे आत्मार्थी प्राणी ! (पुण्य पाप फलमाहिं हरख विलखौ मत) पुण्य के फल में हर्ष न कर और पाप के फल में द्वेष न कर क्योंकि पुण्य और पाप (यह) यह (पुदगल परजाय) पुद्गल की पर्यायें हैं। वे] (उपजि) उत्पन्न होकर (विनसै) नष्ट हो जाती हैं [और] (फिर) पुनः (थाई) उत्पन्न होती हैं। (उर) अपने अन्तर में (निश्चय) निश्चय से वास्तव में (लाख बात की बात) लाखों बातों का सार (यही) इतना ही (लाओ) ग्रहण करो कि (सकल) पुण्य-पापरूप समस्त (जग दंद फंद) जन्म-मरण के द्वद [राग-द्वेष रूप विकारी मलिन भाव (तोरि) तोड़कर (नित) सदेव (आतम ध्याओ) अपने आत्मा का ध्यान करो। सम्यक्चारित्र का समय और भेद तथा अहिंसाणुव्रत और सत्याणुव्रत का लक्षण
सम्यक् ज्ञानी होय बहुरि दिढ़ चारित लीजै । एकदेश अरु सकलदेश तसुभेद कहीजै ॥ त्रसहिंसा को त्याग वृथा थावर न सँहारे ।
पर वधकार कठोर निंद्य नहिं वयन उचारै ॥ १० ॥ अन्वयार्थ :- (सम्यक्ज्ञानी) सम्यक्ज्ञानी (होय) होकर (बहुरि) फिर (दिढ़) दृढ़ (चारित) सम्यक्चारित्र (लीजै) का पालन करना चाहिये (तसु) उसके [सम्यक्चारित्र के (एकदेश) एकदेश (अरु) और (सकल देश) सर्वदेश [ऐसे दो] (भेद) भेद (कहीजै) कहे गये हैं। [उनमें] (त्रसहिंसा को) त्रस जीवों की हिंसा का (त्याग) त्याग करना [और (वृथा) बिना कारण (थावर) स्थावर जीवों का (न संहारै) घात न करना [वह अहिंसाणुव्रत कहलाता है] (पर वधकार) दूसरों को दुःखदायक (कठोर) कठोर [और] (निंद्य) निंद्यनीय (वयन) वचन (नहिं उचारै) न बोलना [वह सत्याणुव्रत है ।
अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत, परिग्रह परिमाणाणुव्रत तथा दिग्व्रत का लक्षण
जल मतिका विन और नाहिं कछु गहै अदत्ता । निज वनिता विन सकल नारिसों रहे विरत्ता ॥ अपनी शक्ति विचार परिग्रह थोरो राखे ।
दश दिश गमन प्रमाण ठान, तस सीम न नाखे ॥ ११ ॥ अन्वयार्थ :- (जल मृतिका विन) पानी और मिट्टी के अतिरिक्त (और कछु) अन्य कोई वस्तु (अदत्ता) बिना दिये (नाहिं) नहीं (गहै) लेना [उसे अचौर्याणुव्रत कहते हैं ] (निज) अपनी (वनिता विन) स्त्री के अतिरिक्त (सकल नारिसौं) अन्य सर्व स्त्रियों से (विरत्ता) विरक्त (रहे) रहना [वह ब्रह्मचर्याणुव्रत है] (अपनी) अपनी (शक्ति विचार) शक्ति का विचार करके (परिग्रह) परिग्रह (थोरो) मर्यादित (राखै) रखना [सो परिग्रह परिमाणाणुव्रत है] ( दश दिश) दस दिशाओं में (गमन) जाने-आने