SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छहढाला - चौथी ढाल ११८ किंचितमात्र (सख) सुख (न पायो) प्राप्त न कर सका। ज्ञान के दोष और मनुष्य पर्याय आदि की दुर्लभता तातै जिनवर कथित तत्त्व अभ्यास करीजे । संशय विभ्रम मोह त्याग आपो लख लीजे ॥ यह मानुष पर्याय सकल सनिवौ जिनवानी । इह विध गये न मिले, सुमणि ज्यौं उदधि समानी ॥ ६ ॥ अन्वयार्थ :- (तातें) इसलिये (जिनवर कथित) जिनेन्द्र भगवान के कहे हुए (तत्त्व) परमार्थ तत्त्व का (अभ्यास) अभ्यास (करीजे) करना चाहिये [और] (संशय) संशय (विभ्रम) विपर्यय [तथा] (मोह) अनध्यवसाय [अनिश्चितता को] (त्याग) छोड़कर (आपो) अपने आत्मा को (लख लीजे) लक्ष्य में लेना चाहिये अर्थात् जानना चाहिये। यदि ऐसा नहीं किया तो] (यह) यह (मानुष पर्याय) मनुष्य भव (सुकुल) उत्तम कुल [और] (जिनवानी) जिनवाणी का (सुनिवौ) सुनना (इह विध) ऐसा सुयोग (गये) बीत जाने पर (उदधि) समुद्र में (समानी) समाये-डूबे हुए (सुमणि ज्यौं) सच्चे रत्न की भाँति [पुनः] (न मिलै) मिलना कठिन है। सम्यग्ज्ञान की महिमा और कारण धन समाज गज बाज राज तो काज न आवै । ज्ञान आपको रूप भये फिर अचल रहावै ॥ तास ज्ञान को कारन स्व-पर विवेक बखानौ । कोटि उपाय बनाय भव्य ताको उर आनौ ॥ ७ ॥ अन्वयार्थ :- (धन) पैसा (समाज) परिवार (गज) हाथी (बाज) घोड़ा (राज) राज्य (तो) तो (काज) अपने काम में (न आवै) नहीं आते [किन्तु] (ज्ञान) सम्यग्ज्ञान (आपको रूप) आत्मा का स्वरूप [जो] (भये) प्राप्त होने के (फिर) पश्चात् (अचल) अचल (रहावै) रहता है (तास) उस (ज्ञान को) सम्यग्ज्ञान का (कारन) कारण (स्व-पर विवेक) आत्मा और पर वस्तुओं का भेदविज्ञान (बखानौ) कहा है [इसलिये] (भव्य) हे भव्य जीवो ! (कोटि) करोड़ों (उपाय) उपाय (बनाय) करके (ताको) उस भेदविज्ञान को (उर आनौ) हृदय में धारण करो। सम्यग्ज्ञान की महिमा और विषयेच्छा रोकने का उपाय जे पूरब शिव गये जाहिं अरु आगे जैहैं । सो सब महिमा ज्ञान तनी मुनिनाथ कहै हैं॥ विषय चाह दव दाह जगत जन अरनि दझावै । तास उपाय न आन ज्ञान घनघान बुझावै ॥ ८ ॥ अन्वयार्थ:- (पूरब) पूर्वकाल में (जे) जो जीव (शिव) मोक्ष में (गये) गये हैं [वर्तमान में ] (जाहि) जा रहे हैं (अरु) और (आगे) भविष्य में (जैहैं) जायेंगे (सो) वह (सब) सब (ज्ञान तनी) सम्यग्ज्ञान की (महिमा) महिमा है ऐसा] (मुनिनाथ) जिनेन्द्रदेव ने (कहे हैं) कहा है। (विषय चाह) पाँच इन्द्रियों के विषयों की इच्छारूपी (दव दाह) भयंकर दावानल (जगत जन) संसारी जीवों रूपी (अरनि) अरण्य-पुराने वन को (दझावै) जला रहा है (तास) उसकी शांति का (उपाय) उपाय (आन)
SR No.009715
Book TitleGyanodaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy