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________________ छहढाला - तीसरी ढाल (बिन जाने तें) उन्हें जाने बिना (दोष) दोषों को (कैसे) किस प्रकार (तजिये) छोड़ें [और] (गुननकों) गुणों को किस प्रकार (गहिये) ग्रहण करें। सम्यक्त्व के आठ अंग (गुण) और शंकादिक आठ दोषों का लक्षण जिन वच में शंका न धार वृष, भव सुख वांछा भानै । मुनि तन मलिन न देख घिनावै, तत्त्व कुतत्त्व पिछानै ॥ निज गुण अरु पर औगुण ठांके, वा निज धर्म बढ़ावै । कामादिक कर वृषसे चिगते, निज पर को स दिढ़ावै ॥ १२ ॥ छंद १३ पूर्वार्द्ध धर्मी सों गौ वच्छ प्रीति सम, कर जिन धर्म दिपावै । इन गुणते विपरीत दोष वसु, तिनको सतत खिपावै ॥ अन्वयार्थ :- १. (जिन वच में) सर्वज्ञ देव के कहे हुए तत्त्वों में (शंका न) संशय-संदेह नहीं करना [सो निःशंकित अंग है] २. (वृष) धर्म को (धार) धारण करके (भव सुख वांछा) सांसारिक सुखों की इच्छा (भानै) न करे सो नि:कांक्षित अंग है] ३. (मुनि तन) मुनियों के शरीरादि (मलिन) मैले (देख) देखकर (न घिनावै) घृणा न करे [सो निर्विचिकित्सा अंग है] ४.(तत्त्व कुतत्त्व) सच्चे और झूठे तत्त्वों को [यथार्थतया] (पिछाने) पहिचाने [सो अमूढदृष्टि अंग है] ५. (निज गुण) अपने गुणों को (अरु) और (पर औगुण) दूसरे के औगुणों को (ढाके) छिपाये (वा) तथा (निज धर्म) अपने आत्म धर्म को (बढ़ावै) बढ़ाये अर्थात् निर्मल बनाए [सो उपगूहन अंग है] ६. (कामादिक कर) काम विकारादि के कारण (वृष ) धर्म से (चिगते) च्युत होते हुए (निज पर को) अपने को तथा पर को (सु दिढ़ावै) उसमें पुन: दृढ़ करे सो स्थितिकरण अंग हैं] ७. (धर्मी सों) अपने साधर्मीजनों से (गौ वच्छ प्रीति सम) बछड़े पर गाय की प्रीति समान (कर) प्रेम रखना [सो वात्सल्य अंग है और] ८. (जिन धर्म) जिन धर्म की (दिपावै) शोभा में वृद्धि करना [सो प्रभावना अंग है] (इन गुणते) इन आठ गुणों से (विपरीत) उल्टे (वसु) आठ (दोष) दोष हैं, (तिनको) उन्हें (सतत) हमेशा (खिपावै) दूर करना चाहिये। छंद १३ उत्तरार्द्ध मद के आठ प्रकार पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय न तो मद ठाने । मद न रूप को मदन ज्ञान को, धन बल को मद भानै ॥ १३ ॥ छंद १४ पूर्वार्द्ध तप को मद न मद जु प्रभुता को, करै न सो निज जाने । मद धारै तौ यही दोष वसु, समकित कौ मल ठानै ॥ अन्वयार्थ :-[जो जीव] (जो) यदि (पिता) पिता आदि पितृपक्ष के स्वजन (भूप) राजादि (होय) हों (तौ) तो (मद) अभिमान (न ठान) नहीं करता [यदि] (मातुल) मामा आदि मातृपक्ष के स्वजन (नृप) राजादि (होय) हों तो (मद) अभिमान (न) नहीं करता (रूप कौ) शारीरिक सौंदर्य का (मद न) अभिमान नहीं करता (ज्ञान कौ) विद्या का अभिमान नहीं करता (धन कौ) लक्ष्मी का (बलको) शक्ति का (मद भानै) अभिमान नहीं करता (तप कौ) तप का (मद न) अभिमान नहीं करता (जु) और (प्रभुता कौ) ऐश्वर्य-बड़प्पन का (मद न करै) अभिमान नहीं करता (सो) वह (निज) अपने आत्मा
SR No.009715
Book TitleGyanodaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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