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________________ छहढाला - तीसरी ढाल आस्रव त्याग का उपदेश और बंध, संवर, निर्जरा का लक्षण ये ही आतम को दु:ख कारण, तातै इनको तजिये । जीव प्रदेश बंधै विधि सों सो, बंधन कबहुं न सजिये ॥ शम दम तैं जो कर्म न आवै, सो संवर आदरिये । तप बलते विधि मरन निर्जरा, ताहि सदा आचरिये ॥ ९॥ अन्वयार्थ :-(ये ही) मिथ्यात्वादि ही (आतम को) आत्मा को (दु:ख कारण) दु:ख के कारण हैं (तात) इसलिये (इनको) इन मिथ्यात्वादि को (तजिये) छोड़ देना प्रदेशों का (विधि सों) कर्मों से (बंधै) बंधना वह (बंधन) बंध [कहलाता है (सो) वह [बंध] (कबहुं) कभी भी (न सजिये) नहीं करना चाहिये। (शम) कषायों का अभाव [और] (दम तै) इन्द्रियों तथा मन को जीतने से (जो) जो (कर्म) कर्म (न आवै) नहीं आयें वह (संवर) संवर तत्त्व है (ताहि) उस संवर को (आदरिये) ग्रहण करना चाहिये । (तप बलते) तप की शक्ति से (विधि) कर्मों का (मरन) एक देश खिर जाना सो (निर्जरा) निर्जरा है (ताहि) उस निर्जरा को (सदा) सदैव (आचरिये) आचरण करना चाहिये। मोक्ष का लक्षण, व्यवहार सम्यक्त्व का लक्षण तथा कारण सकल कर्मक् रहित अवस्था, सो शिव थिर सुखकारी । इहि विध जो सरधा तत्त्वन की, सो समकित व्यवहारी ॥ देव जिनेन्द्र, गुरु परिग्रह बिन, धर्म दयाजुत सारो । येहु मान समकित को कारण, अष्ट अंग जुत धारो ॥ १०॥ अन्वयार्थ :- (सकल कर्मतै) समस्त कर्मों से (रहित) रहित (थिर) स्थिर, अटल (सुखकारी) अनन्त सुखदायक (अवस्था) दशा, पर्याय (सो) वह (शिव) मोक्ष है (इहि विध) इस प्रकार (जो) जो (तत्त्वन की) सात तत्त्वों के भेद सहित (सरधा) श्रद्धा करना सो (व्यवहारी) व्यवहार (समकित) सम्यग्दर्शन है। (जिनेन्द्र) वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी (देव) सच्चे देव (परिग्रह बिन) चौबीस परिग्रह से रहित (गुरु) वीतराग गुरु [तथा] (सारो) सारभूत (दयाजुत) अहिंसामय (धर्म) जिन धर्म (येह) इन सबको (समकित को) सम्यग्दर्शन का (कारण) निमित्त कारण (मान) जानना चाहिये। सम्यग्दर्शन को उसके (अट) आठ (अंग जुत) अंगों सहित (धारो) धारण करना चाहिये। सम्यक्त्व के पच्चीस दोष तथा आठ गुण वसु मद टारि निवारि त्रिशठता, षट् अनायतन त्यागो । शंकादिक वसु दोष बिना, संवेगादिक चित पागो ॥ अष्ट अंग अरु दोष पचीसो तिन संक्षेपै कहिये । बिन जाने से दोष गुननको', कैसे तजिये गहिये ॥ ११ ॥ अन्वयार्थ :- (वसु) आठ (मद) मद का (टारि) त्याग करके (त्रिशठता) तीन प्रकार की मूढ़ता को (निवारि) हटाकर (षट्) छह (अनायतन) अनायतनों का (त्यागो) त्याग करना चाहिये। (शंकादिक) शंकादि (वसु) आठ (दोष बिना) दोषों से रहित होकर (संवेगादिक) संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य और प्रशम में (चित) चित्त को (पागो) लगाना चाहिये। [अब, सम्यक्त्व के] (अष्ट) आठ (अंग) अंग (अरु) और (पचीसों दोष) पच्चीस दोष (तिन)उनको (संक्षेपै) संक्षेप में (कहिये) कहा जाता है। क्योंकि]
SR No.009715
Book TitleGyanodaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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