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________________ छहढाला तीसरी ढाल १०५ अन्वयार्थ :(ज्ञान शरीरी) ज्ञान मात्र जिनका शरीर है ऐसे (त्रिविध) ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म, रागादि भाव कर्म तथा औदारिक शरीरादि नोकर्म, ऐसे तीन प्रकार के (कर्म मल) कर्म रूपी मैल से (वर्जित) रहित (अमल) निर्मल और (महंता) महान (सिद्ध) सिद्ध परमेष्ठी (ते) वे (निकल) निकल (परमातम) परमात्मा (है) हैं। वे (अनन्ता) अपरिमित (शर्म) सुख (भोग) भोगते हैं । इन तीनों में (बहिरातमता) बहिरात्मपने को (हेय) छोड़ने योग्य (जानि) जानकर और (तजि) उसे छोड़कर (अंतरआतम) अंतरात्मा (हूजै) होना चाहिये और (निरंतर) सदा (परमातम को) [निज] परमात्म पद का (ध्याय) ध्यान करना चाहिये (जो) जिसके द्वारा (नित) अर्थात् सदैव (आनंद) आनन्द ( पूजै) प्राप्त किया जाता है । अजीव-पुद्गल धर्म और अधर्म द्रव्य के लक्षण तथा भेद चेतनता बिन सो अजीव है, पंच भेद ताके हैं । पुद्गल पंच वरन रस, गंध दो फरस वसु जाके हैं । जिय पुद्गल को चलन सहाई, धर्म द्रव्य अनरूपी । तिष्ठत होय अधर्म सहाई, जिन बिन मूर्ति निरूपी ॥ ७ ॥ अन्वयार्थ :- जो (चेतनता बिन) चेतनता रहित है (सो) वह (अजीव) अजीव है (ताके) उस अजीव के (पंच भेद) पाँच भेद हैं (जाके पंच वरन रस गंध दो) जिसके पाँच वर्ण और रस, दो गंध और (वसु) आठ (फरस) स्पर्श (हैं) होते हैं वह (पुद्गल) पुद्गल द्रव्य है। जो (जिय) जीव को [ और ] (पुद्गल को ) पुद्गल को (चलन सहाई) चलने में निमित्त [और] (अनरूपी) अमूर्तिक है वह (धर्म द्रव्य) धर्म द्रव्य है। [तथा] (तिष्ठत) गति पूर्वक स्थिति परिणाम को प्राप्त [जीव और पुद्गल को] (सहाई) निमित्त (होय) होता है वह (अधर्म) अधर्म द्रव्य है । (जिन) जिनेन्द्र भगवान ने उस अधर्म द्रव्य को (बिन मूर्ति) अमूर्तिक (निरूपी) अरुपी कहा है। आकाश, काल और आस्रव के लक्षण अथवा भेद सकल द्रव्य को वास जास में, सो आकाश पिछानो । नियत वर्तना निशदिन सो, व्यवहार काल परिमानो ॥ यों अजीव, अब आस्रव सुनिये, मन वच काय त्रियोगा । मिथ्या अविरत अरु कषाय, परमाद सहित उपयोगा ॥ ८ ॥ अन्वयार्थ :- (जास में) जिसमें (सकल) समस्त (द्रव्य को) द्रव्यों का (वास) निवास है (सो) वह (आकाश) आकाश द्रव्य (पिछानो) जानना (वर्तना) स्वयं प्रवर्तित हो और दूसरों को प्रवर्तित होने में निमित्त हो वह (नियत) निश्चय काल द्रव्य है तथा (निशदिन) रात्रि, दिवस आदि (व्यवहार काल) व्यवहार काल (परिमानो) जानो (यों) इस प्रकार (अजीव) अजीव तत्त्व का वर्णन हुआ। (अब) अब (आस्रव) आस्रव तत्त्व (सुनिये) का वर्णन सुनो। (मन वच काय ) मन, वचन और काय के आलम्बन से आत्मा के प्रदेश चंचल होने रूप (त्रियोगा) तीन प्रकार के योग [तथा] ( मिथ्या अविरत ) मिथ्यात्व, अविरत (अरु) और (कषाय) कषाय (परमाद) प्रमाद (सहित) सहित (उपयोग ) आत्मा की प्रवृत्ति वह (आस्रव) आस्रव तत्त्व कहलाता है।
SR No.009715
Book TitleGyanodaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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