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________________ छहढाला - तीसरी ढाल १०४ कहे हैं (जानो) ऐसा जानो (तिनको) उन सबकी (ज्यों का त्यों) यथावत् यथार्थ रूप से (सरधानो) श्रद्धा करो (सोई) इस प्रकार श्रद्धा करना (समकित व्यवहारी) व्यवहार से सम्यग्दर्शन (है) है। (अब इन रूप) अब इन सात तत्त्वों के स्वरूप का (बखानो) वर्णन करते हैं (तिनको) उन्हें (सामान्य विशेष) संक्षेप से तथा विस्तार से (सुन) सुनकर (उर) मन में (दिढ़) अटल (प्रतीत) श्रद्धा (आनो) करो। जीव के भेद, बहिरात्मा और उत्तम अंतरात्मा का लक्षण बहिरातम अन्तर आतम परमातम जीव त्रिधा है । देह जीव को एक गिने बहिरातम तत्त्व मुधा है ॥ उत्तम मध्यम जघन त्रिविध के अन्तर आतम ज्ञानी। द्विविध संग बिन शुध उपयोगी मुनि उत्तम निजध्यानी ॥ ४ ॥ अन्वयार्थ :- (बहिरातम) बहिरात्मा (अन्तर आतम) अन्तरात्मा [और] (परमातम) परमात्मा [इस प्रकार (जीव) जीव (त्रिधा) तीन प्रकार के (है) हैं [उनमें] (देह जीव को) शरीर और आत्मा को (एक गिने) एक मानते हैं वे (बहिरातम) बहिरात्मा हैं और वे बहिरात्मा (तत्त्व मुधा) यथार्थ तत्त्वों से अजान अर्थात् तत्त्व मूढ़ मिथ्यादृष्टि हैं। (आतम ज्ञानी) आत्मा को पर वस्तुओं से भिन्न जानकर यथार्थ निश्चय करने वाले (अन्तर आतम) अंतरात्मा कहलाते हैं, वे] (उत्तम) उत्तम (मध्यम) मध्यम और (जघन) जघन्य ऐसे (त्रिविध के) तीन प्रकार के हैं; [उनमें] (द्विविध) अंतरंग तथा बहिरंग ऐसे दो प्रकार के (संग बिन) परिग्रह रहित (शुध उपयोगी) शुद्ध उपयोगी (निज ध्यानी) आत्म ध्यानी (मुनि) दिगम्बर मुनि (उत्तम) उत्तम अन्तरात्मा हैं। मध्यम और जघन्य अन्तरात्मा तथा सकल परमात्मा मध्यम अन्तर आतम हैं जे देशव्रती अनगारी । जघन कहे अविरत समदृष्टि, तीनों शिवमग चारी ॥ सकल निकल परमातम दैविध तिनमें घाति निवारी। श्री अरिहंत सकल परमातम लोकालोक निहारी ॥ ५ ॥ अन्वयार्थ :- (अनगारी) छटवें गुणस्थान के समय अंतरंग और बहिरंग परिग्रह रहित यथाजातरूप धर-भावलिंगी मुनि मध्यम अंतरात्मा हैं तथा (जे) जो (देशव्रती) दो कषाय के अभाव सहित ऐसे पंचम गुणस्थान वर्ती सम्यक्दृष्टि श्रावक [हैं वे] (मध्यम) मध्यम (अंतर आतम) अंतरात्मा (है) हैं और अविरत) व्रत रहित (समदृष्टि) सम्यकदृष्टि जीव (जघन) जघन्य अंतरात्मा (कहे) कहलाते हैं (तीनों) यह तीनों (शिवमग चारी) मोक्षमार्ग पर चलने वाले हैं। (सकल निकल) सकल और निकल के भेद से (परमातम) परमात्मा (द्वैविध) दो प्रकार के हैं (तिनमें) उनमें (घाति) चार घातिया कर्मों को (निवारी) नाश करने वाले (लोकालोक) लोक तथा अलोक को (निहारी) जानने देखने वाले (श्री अरिहंत) अरिहंत परमेष्ठी (सकल) शरीर सहित (परमातम) परमात्मा हैं। निकल परमात्मा का लक्षण तथा परमात्मा के ध्यान का उपदेश ज्ञान शरीरी त्रिविध कर्म मल वर्जित सिद्ध महता। ते हैं निकल अमल परमातम भोगै शर्म अनन्ता ॥ बहिरातमता हेय जानि तजि, अंतर आतम हजै । परमातम को ध्याय निरंतर जो नित आनंद पूजै ॥ ६ ॥
SR No.009715
Book TitleGyanodaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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