________________
छहढाला दूसरी ढाल
कहा है- १ अग्रहीत मिथ्यात्व २. ग्रहीत मिथ्यात्व ।
१. अग्रहीत मिथ्यात्व - जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष प्रयोजन भूत तत्त्व हैं उनमें विपरीत श्रद्धा करना अग्रहीत मिथ्यात्व है ।
-
अग्रहीत का सामान्य अर्थ है - जो अनादि से जीव के साथ मिथ्या मान्यता चली आ रही है । शरीर व पर वस्तुओं में मैं पने का संबंध जोड़ना, शुभ-अशुभ भावों - कर्मों के उदय में हर्ष-विषाद आदि करके नये कर्मों का बंध करना। तप आदि से निर्जरा होती है उसे कष्ट दायक मानना । पूर्ण निराकुलता ही मोक्ष तत्त्व है उसे स्वीकार न करना अग्रहीत मिथ्यात्व है।
२. ग्रहीत मिथ्यात्व मनुष्य भव पाकर कुगुरू, कुदेव, कुधर्म का सेवन करना ग्रहीत मिथ्यात्व है। जो मनुष्य ग्रहीत मिथ्यात्व का सेवन करता है, वह अपने दर्शन मोहनीय कर्म को पुष्ट करता है ।
-
कविवर दौलतराम जी कहते हैं -
"I
'अब आतम के हित पंथ लाग " अर्थात् आत्म हितैषी जीव को निश्चय सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र ग्रहण करके अग्रहीत मिथ्यादर्शन ज्ञान चारित्र का त्याग करके आत्म कल्याण के मार्ग में लगना चाहिये । वे आगे कहते हैं- " निज आतम सुपाग -" निज आतम सुपाग " अर्थात् जीव को भलीभाँति सावधान होकर ग्रहीत तथा अग्रहीत दोनों प्रकार के मिथ्याभाव छोड़कर, उनका यथार्थ निर्णय कर निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट करना चाहिये। आत्मा में भलीभाँति लीन हो जाना चाहिये यही आत्म हित का पंथ है।
प्रश्न (ग) किसी एक छंद को शुद्ध रूप से लिखकर उसकी व्याख्या कीजिये । उत्तर- (उक्त प्रश्न का उत्तर स्वयं खोजें )
[] आत्मा परमात्म तुल्यं ।
१०२
तारण वाणी - अमृत सूत्र
आत्मा परमात्मा के समान है ।
अप्पं च अप्प तारं ।
अपना आत्मा ही स्वयं को तारने वाला है ।
[ कम्म सहावं विपनं ।
कर्मो का स्वभाव क्षय होने का है ।
] विकहा अधर्म मूलस्य ।
विकथायें (व्यर्थ चर्चायें) अधर्म की जड़ हैं | कमलं कलंक रहिये ।
[] पूजा पूज्य समाचरेत् ।
पूज्य के समान आचरण होना सच्ची पूजा है।
जिनवयनं सद्दहनं ।
जिनेन्द्र भगवान के वचनों पर श्रद्धा करो । ] पण्डिय विवेय सुद्धं ।
पंडित अर्थात् ज्ञानी वह है जो विवेक से (आत्म-अनात्म बोध से ) शुद्ध होता है। [ ममात्मा ममलं सुद्धं ।
मेरा आत्मा ममल स्वभावी है।
कमल के समान ज्ञायक ज्ञान स्वभावी आत्मा सर्व कर्म मल रहित है।