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छहढाला- दूसरी ढाल
(घ) गृहीत मिथ्याचारित्र का लक्षण क्या है ?
उत्तर -जो अपनी ख्याति, लाभ, पूजा आदि की चाहपूर्वक शरीर को कष्ट देने वाली अनेक प्रकार की क्रियायें करते हैं, वह गृहीत मिथ्याचारित्र है। प्रश्न ३ दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
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(क) दूसरी ढाल का संक्षिप्त सारांश लिखिये ।
उत्तर १- यह जीव मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के वश होकर चार गतियों में परिभ्रमण करके प्रतिसमय अनन्त दुःख भोग रहा है। जब तक देहादि से भिन्न अपने आत्मा की सच्ची प्रतीति तथा रागादि का अभाव न करे तब तक सुख-शान्ति और आत्मा का हि नहीं हो सकता ।
२ - आत्महित के लिये (सुखी होने के लिये) - १. सच्चे देव, गुरू और धर्म की यथार्थ प्रतीति, २. जीवादि सात तत्त्वों की यथार्थ प्रतीति, ३. स्व-पर के स्वरूप की श्रद्धा, ४. निज शुद्धात्मा के प्रतिभासरूप आत्मा की श्रद्धा, इन चार लक्षणों के अविनाभाव सहित सत्य श्रद्धा ( निश्चय सम्यग्दर्शन) जब तक जीव प्रगट न करे तब तक उद्धार नहीं हो सकता अर्थात् धर्म का प्रारम्भ भी नहीं हो सकता और तब तक आत्मा को अंश मात्र भी सुख प्रगट नहीं होता ।
३ - सात तत्त्वों की मिथ्या श्रद्धा करना उसे मिथ्यादर्शन कहते हैं। अपने स्वतंत्र स्वरूप की भूल का
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कारण आत्मस्वरूप में विपरीत श्रद्धा होने से ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, शरीरादि नो कर्म, पुण्य-पाप, रागादि मलिन भावों में एकत्व बुद्धि है और इसीलिये शुभराग तथा पुण्य ति है, शरीरादि पर पदार्थों की अवस्था (क्रिया) मैं कर सकता हूँ, पर मुझे लाभ-हानि पहुंचा सकता है, तथा मैं पर का कुछ कर सकता हूँ - ऐसी मान्यता के कारण जीव को सत्-असत् का विवेक नहीं होता। सच्चा सुख तथा हितरूप श्रद्धा ज्ञान चारित्र अपने आत्मा के ही आश्रय से होते हैं इस बात की भी उसे खबर नहीं होती।
४ पुनश्च कुदेव, कुगुरू, कुशास्त्र और कुधर्म की श्रद्धा, पूजा, सेवा तथा विनय करने की जो प्रवृत्ति है वह अपने मिथ्यात्वादि महान दोषों का पोषण करने वाली होने से दुःखदायक है, अनंत संसार भ्रमण का कारण है। जो जीव उसका सेवन करता है, उसे कर्तव्य समझता है वह दुर्लभ मनुष्य जीवन को नष्ट करता है।
५- अगृहीत मिथ्यादर्शन ज्ञान चारित्र जीव को अनादिकाल से होते हैं फिर मनुष्य होने के पश्चात् कुशास्त्र का अभ्यास करके कुगुरू का उपदेश स्वीकार करके गृहीत मिथ्याज्ञान- मिथ्या श्रद्धा धारण करता है। कुमति का अनुसरण करके मिथ्याक्रिया करता है वह गृहीत मिथ्याचारित्र है । इसलिये जीव को भली-भाँति सावधान होकर गृहीत तथा अगृहीत दोनों प्रकार के मिथ्याभाव छोडने योग्य हैं। उनका यथार्थ निर्णय करके निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट करना चाहिये। मिथ्याभावों का सेवन कर-करके, संसार में भटककर, अनंत जन्म धारण करके अनंत काल गवां दिया अब सावधान होकर आत्मोद्धार करना चाहिये ।
(ख) मिथ्यात्व क्या है ? विस्तार से बताकर सिद्ध करें कि आत्महित का पंथ निज आतम सुपाग है। उत्तर- विपरीत मान्यता अर्थात् विपरीत श्रद्धान को मिथ्यात्व कहते हैं। जो वस्तु जैसी है, उसे वैसी न मानकर अन्य तरह से मानना, यह मिथ्या श्रद्धान है। आचार्यों ने मिथ्यात्व को दो तरह से