________________
छहढाला - पहली ढाल
अन्वयार्थ :- [यह जीव] (कबहूँ) कभी (पंचेन्द्रिय) पंचेन्द्रिय (पशु) तिर्यंच (भयो) हुआ तो (मन बिन) मन के बिना (निपट) अत्यन्त (अज्ञानी) मूर्ख (थयो) हुआ [तब] (सिंहादिक) सिंह आदि (क्रूर) क्रूर जीव (है) होकर (निबल) अपने से निर्बल (भूर) अनेक (पशु) तिर्यंच (हति) मार-मारकर (खाये) खाये।
तिर्यंचगति में निर्बलता तथा दुःख कबहूँ आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अतिदीन ।
छेदन भेदन भूख पियास, भार-वहन, हिम, आतप त्रास ॥ ८ ॥ अन्वयार्थ :- [यह जीव तिर्यंच गति में] (कबहूँ) कभी (आप) स्वयं (बलहीन) निर्बल (भयो) हुआ तो] (अतिदीन) असमर्थ होने से (सबलनिकरि) अपने से बलवान प्राणियों द्वारा (खायो) खाया गया [और (छेदन) छेदा जाना (भेदन) भेदा जाना (भूख) भूख (पियास) प्यास (भार-वहन) बोझ ढोना (हिम) ठण्ड (आतप) गर्मी [आदि के] (त्रास) दुःख सहन किये।
तिर्यंच के दुःख की अधिकता और नरक गति की प्राप्ति का कारण वध बंधन आदिक दुख घने, कोटि जीभतै जात न भने । अति संक्लेश भावतें मरो घोर श्वभ्र सागर में परयो ॥ ९ ॥
-बन्धन
|संक्लेश-मरण
-
अन्वयार्थ :- [इस तिर्यंच गति में जीव ने अन्य भी] (वध) मारा जाना (बंधन) बँधना (आदिक) आदि (घने) अनेक (दुःख) दुःख सहन किये [वे] (कोटि) करोड़ों (जीभतै) जीभों से (भने न जात) नहीं कहे जा सकते। [इस कारण] (अति संक्लेश) अत्यन्त बुरे (भावते) परिणामों से (मर्यो) मरकर (घोर) भयानक (श्वभ्रसागर में) नरकरूपी समुद्र में (पर्यो) जा गिरा।
नरकों की भूमि और नदियों का वर्णन तहाँ भूमि परसत दुख इसो, बिच्छू सहस डसे नहिं तिसो ।
तहाँ राध-श्रोणितवाहिनी, कृमि-कुल-कलित, देह-दाहिनी ॥ १०॥ अन्वयार्थ :- (तहाँ) उस नरक में (भूमि) धरती (परसत) स्पर्श करने से (इसो) ऐसा (दुख) दुःख होता है कि (सहस) हजारों (बिच्छू) बिच्छू (डसे) डंक मारें तथापि (नहिं तिसो) उसके समान दुःख नहीं होता तथा] (तहाँ) वहाँ नरक में ] (राध-श्रोणितवाहिनी) रक्त और मवाद बहाने वाली