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अनुमोदना आर्य संस्कृति में दो मूल धारायें अनादि से रही हैंभेद भक्ति और अभेदभक्ति-जिसका संचालन वैदिक दर्शन और जैन दर्शन करता रहा है। परमात्मा को पररूपमेंमानना उसकी वन्दना भक्ति पूजा करना उससे अपना कल्याण चाहना तथा परमात्मा को विश्व का कर्ता धर्ता नियन्ता मानना बह भेद भक्ति है, जो संसार में पुण्य को धर्म बताकर जीवों को पाप से छुड़ाती है। दूसरी ओर, परमात्मा को स्वस्वरूप में मानना कि "में आत्मा स्वयं परमात्मा हूँ" ऐसा अनुभूतियुत ज्ञान श्रद्धान होना और इसकीहीसाधनाआराधना करना यह अभेद भक्ति है, जो जीव को संसार के अज्ञान जनित सुख-दुःख एवं जन्म-मरण से मुक्त करने वाली परम-सुख शान्ति आनन्द को देने वाली, मोक्ष की कारण है।
अध्यात्मवाद में जाति-पांति सम्प्रदाय का भेद-भाव नहीं होता, जो जीव आत्म कल्याण करना चाहते हैं उनके लिये अभेद भक्ति अनुकरणीय है। ज्ञान मार्ग से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है, ज्ञानी की पूजा-भक्ति और आचरण केसा होता है, इसे स्पष्ट करने के लिये सोलहवीं शताब्दी के आध्यात्मिक वीतरागी सन्त श्री जिन तारण स्वामी के ग्रंथ श्रीज्ञान समुच्चय सार, उपदेशशुद्धसार जी गंधों के आधार पर-देव गरूशास्त्र पूजा को बाल ब्रम्हचारी श्रीबसंत जीने अपनी भाषा में संजोया है। जो स्व स्वरूप का ज्ञान-प्रदान कराने में अपूर्व सहयोगी है। प्रस्तुत देव, गुरू, शास्त्र की भाव पूजा को पढ़ने से हृदब गदगद हो जाता है। सभी सत्मार्थी भव्य-जीव इसके स्वाध्याय चिन्तन मनन से लाभान्वित हों और अध्यात्म दष्टि बनाकर सच्चे मोक्षमार्गी (तारण पंथी) बनें ऐसी मंगल भावना है। साधक निवास बरेली दिनांक २०.८.९०
ब्र.ज्ञानानन्द
अपनी बात परमानंद परम ज्योतिः, चिदानन्द जिनात्मनं ।। सुयं रूपं समं सुद्ध, विन्दस्थाने नमस्कृतं ॥
जब तक सच्चेदेव-सच्चेगुरू-सच्चेशास्त्र-धर्म के स्वरूप को नहीं जाना जाता, तब तक जो भी पूजा-मान्यता है वह रूढ़िवाद-गृहीत मिथ्यात्व है। सच्चेदेव-गुरू-धर्मशास्त्र का स्वरूप समझने से स्वयं को आत्म बोध होता है।
वीतरागी सन्त श्री गुरू तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज की साधना स्थली तपो-भूमि तीर्धाधिराज श्री सेमरखेड़ी जी क्षेत्र पर आत्मनिष्ठ साधक पूज्य श्री स्वामी ज्ञानानन्द जी महाराज के साथ एक माह साधना करने का सुयोग मिला, साधना आराधना के क्रम में पूज्य श्री की सत्प्रेरणा से यह देव, गुरू, शास्त्र पूजा की रचना सहज में
सदगुरू श्री जिन तारण स्वामी द्वारा विरचित श्री ज्ञान समुच्चय सार, उपदेश शुद्धसार, श्रावकाचार जी ग्रन्थ की प्रारम्भिक देव, गुरू, शास्त्र सम्बंधी मंगलाचरण की गाथाओं के आधार पर अध्यात्म आराधना षट् आवश्यक और यह भाव पूजा लिखी गई है। सभी भव्य-जीव अपने आदर्श सच्चे देव, गुरू, धर्म की भाव पूजा मय आराधना करें और प्रतिदिन इसका पाठ कर यथार्थ वस्तु स्वरूप सहित सत्य का निर्णय करके इस अमूल्य मानव जीवन को सफल बनायें, आत्मा से परमात्मा बनें, इन्हीं मंगल भावनाओं सहित मुमुक्षु भव्यात्माओं के लिये समर्पित है।
वर्षावास गंजबासौदा दिनांक २५.८.९०
ब्र.बसन्त