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कठिन कार्य है। ११०.जो वस्तु पराई है, उसे ललचाई दृष्टि से देखना भी
अपराध है - ग्रहण तो अपराध है ही। १११.जो अपने हित के मार्ग में अपूर्ण है, वह अभी क्रोध,
मान, माया, लोभ आदि कषायों के भार से संयुक्त है, ऐसा गृहस्थ आत्मश्रद्धानी या आत्मज्ञानी हो पर
आत्मनिष्ठ नहीं हो सकता। ११२.वस्त्र, देह की तरह जन्म से साथ नहीं आता, वह
बुद्धि पूर्वक ग्रहण किया जाता है। बुद्धि पूर्वक किसी भी वस्तु का ग्रहण उस वस्तु के प्रति आकर्षण या
राग के बिना संभव नहीं। ११३.तन का नग्न मुनि नहीं होता - मन का नग्न मुनि
होता है और मन की नग्नता, समस्त मानसिक
विकारों से रहित होने पर ही होती है। ११४.रागादि विकारी भावों का बन्धन ही बन्धन है और
उनका छूटना ही मोक्ष है। ११५.तत्व ज्ञानी को किसी पदार्थ में राग-द्वेष की उत्पत्ति
न होना, इसे ही सम्यम्चारित्र कहते हैं। १९६.ज्ञानी को चाहिये कि वस्तु स्वभाव को समझकर ज्ञान
भाव में रहे - रागादि न करे। ११७.अपने स्वभाव में स्थिति ही निरपराध निर्बन्ध है। १९८.तत्व का सार - चर्चाओं का तथा अपने दुष्ट
संकल्प-विकल्पों का परित्याग करो। १९९.सम्पूर्ण संकल्प-विकल्प तथा वितण्डावाद छोड़कर
एक मात्र स्वयं शुद्धात्मा का अनुभव करो, वही तुम्हारा परम तत्व या परमात्मा है।
२००.शुद्धोपयोग दशा ही वह साधक दशा है, जो आत्मा
को पवित्र बनाती तथा पूर्ण सिद्धि प्रदान करती है। T२0१.जो जीव अनेकान्त स्वरूप जिनवाणी के अभ्यास से ।
उत्पन्न सम्यग्ज्ञान द्वारा केवलज्ञान स्वरूप अरिहन्त पद तथा सर्वकर्मों से रहित सिद्ध परमपद पाता है,वही
भव्य है। २०२.भगवान जिनेन्द्र की अनेकान्त मयी वाणी का श्रवण
कर मुझे शुद्धात्मा की महिमा का प्रकाश हुआ है, अब मुझे इस चर्चा से क्या लाभ - कि बंध कैसे होता है और मोक्ष कैसे होता है। परन्तु अब स्वभाव का सम्यग्बोध होने पर विज्ञान घन स्वभाव में मग्न रहना ही - ज्ञानानन्द सहजानन्द सार्थक है।
! सद्गुरू की महिमा ! १. गुरूदेव दिखलाते सदा, सन्मार्ग की ही गैल है।
जिससे कि गल जाती सभी,अज्ञान की विषबेल है। मोहान्ध ऐसे ज्ञान कुन्जों, से न नाता जोड़ता।
जड़ पत्थरों के ही निकट, वह शीश अपना फोड़ता। २. जिनमें गुंथे तीर्थंकरों के, रे अमोलक बैन हैं।
जिनमें कि रत्नत्रय चमकते, सूर्य से दिन रैन हैं। जो मोक्ष का उपदेश दें, वे ही कि सच्चे शास्त्र हैं।
ये शास्त्र पर उनको न भाते,जो कुगति के पात्र हैं। ३. कहते हैं जिन तारण स्वामी, सुन लो सारे प्राणी।
मैंने वह ही व्यक्त किया है, कहती जो जिन वाणी॥ कट जाती जिस परम ज्ञान से, कर्म बली की फांसी। मैंने तुमको भेंट किया है, ज्ञान वही अविनाशी ॥