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F१७२.मनुष्य जन्म सब जन्मों का अन्तिम जन्म है, इस।
जन्म में संसार से सदा के लिये मुक्त होने का मौका मिला है इस वास्ते इस मौके को हाथ से नहीं गंवाना ।
चाहिये। १७३.शुद्ध स्वात्मानुभूति सम्यग्दर्शन है और भेद विज्ञान
उसकी जड़ है। १७४.प्रत्येक जीव अपने परिणामों के विकारों के कारण
पापी है। १७५.जब तक आत्मा अपने परम पुरुषार्थ को निज बल
से प्रकट कर अनादि कालीन कर्म निमित्त जन्य विभावों और विकल्पों से अपने को नहीं निकालता तब तक इस संसार रूपी गहन जंगल में नाना दुःखों
की परम्परा को प्राप्त होता है। १७६.आत्मा में काल लब्धि के वश सम्यम्सदगुरू के
उपदेश निमित्त से मिथ्यात्वादि प्रकृतियों के उपशम क्षय या क्षयोपशम से जब सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति हुई तभी स्व-पर भेद विज्ञान होने से आत्मा ने अपने स्वरूप को पहिचाना - यही ज्ञान ज्योति या चैतन्य
ज्योति है। १७७.मोक्ष मार्ग में स्थित वे हैं जो सम्यग्दष्टि भेद विज्ञानी
हैं । जिन्हें सम्यग्चारित्र के पालन करने की
चटपटी है। १७८.जितने अंश में ज्ञानी है उतने अंश तो अबन्धक ही है
और जितने सूक्ष्म अंश में उसे राग होता है उतना
बन्ध भी होता है। १७९.आत्म प्रकाश जिसका जग गया है वह भूलकर भी
पर में नहीं रमता। V१८०.हे सम्यग्दष्टि ज्ञानी जीव - निरन्तर ही अपने ज्ञान
स्वभाव में रमण करते हुए रहो।। १८१.भोगोपभोग स्वेच्छापूर्वक भोगते रहो और तुम्हारे कर्म
बन्ध न हो यह कदापि नहीं होता - यह तुम्हारी
स्वेच्छाचारिता का कार्य है, जो दुर्गति ले जायेगा। १८२.अपने उपयोग को अपने स्वरूप में स्थिर करना
ही सबसे बड़ा-कड़ा पुरूषार्थ है जो कि अभ्यास
साध्य है। १८३.अपने स्वभाव में रमण करना तथा रागादि रूप
परिणमन करना यह दोनों कार्य एक साथ नहीं होते। १८४. उपदेश शुद्ध सार का सार इतना ही है कि स्वाश्रय
करो, ज्ञान स्वभाव में रहो, पराश्रय छोड़ो। १८५.जितना संसार का व्यवहार है वह पराश्रय से होता
है । पराश्रय के त्याग का उपदेश ही परमार्थ का
उपदेश है। १८६.यदि बुद्धि पूर्वक रागादि का त्याग करना चाहते हो
तो द्रव्य परिग्रह का परित्याग अनिवार्य है। १८७.जिन्हें वीतराग चारित्र होगा - उन्हें पूर्व में बाह्य त्याग
रूप व्रतादि अवश्य होंगे - बिना महाव्रतादि की
भूमिका के वीतराग चारित्र नहीं होता। १८८.सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का होना - पुरूषार्थ
का जागना है, चारित्र धारण करना उस पुरुषार्थ का
करना है। १८५.आत्म स्वभाव तथा कर्म स्वभाव और उसके निमित्त
से होने वाले अपने विभाव का परिज्ञान ही सबसे
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