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१५२. क्रोध - अन्धा होता है, इससे प्रीति नष्ट होती है। अभिमान - बहरा होता है, इससे विनयशीलता नष्ट होती है। माया- • गूंगी होती है, इससे मित्रता नष्ट होती है। लोभ बहरा होता है यह सब कुछ नष्ट कर देता है।
१५३. कबिरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर । जो पर पीर न जानई, सो काफिर बेपीर ॥
१५४. दुराचारी मनुष्य ही राक्षस होता है।
बाढ़े खल बहु चोर जुआरा, जे लंपट पर धन परदारा मानहि मातु पिता नहीं देवा, साधुन्ह से करवाबहि सेवा ।
जिन्हके यह आचरन भवानी, ते जानहु निशिचर सब प्राणी ॥
१५५. सत्व गुण से ज्ञान उत्पन्न होता है और मनुष्य ऊ पर को उठता है। रजोगुण से लोभ राग पैदा होता है, तमो गुण से प्रमाद, मोह, अज्ञान पैदा होते हैं और पतन की ओर ले जाते हैं।
१५६. पानी बाढ़े नाव में, घर में बाढ़े दाम | दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानों काम || १५७. तीन सजावत देश को, सती संत और शूर । तीन लजावत देश को, कपटी कायर कूर ॥ १५८. ज्ञान का अभिमान महान अहित कर है।
१५९. केवल अपने सुखोपभोग के लिये जीने वाला व्यक्ति पाप की जिन्दगी जीता है तथा निन्दनीय है । १६०. जिसकी इन्द्रियां नियंत्रित हैं उसी की बुद्धि स्थिर है । १६१. मानसिक व्यभिचार सबसे बड़ा पाप है।
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१६२. जहां तर्क है वहां विश्वास नहीं है।
११६३. किसी के प्रति श्रद्धा तभी उत्पन्न होती है जब उसमें विश्वास हो जाये।
१६४. अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम । दास मलूका कह गये, सबके दाता राम ॥ १६५ लाख करो तदवीर, तो क्या होता है । वही होता है, जो मंजूरे खुदा होता है ।
१६६. अपने जीवन को सदाचारी सुखमय बनाने हेतु चेतावनी(1) अपने भोजन पर नियन्त्रण रखें।
(२) सज्जन पुरुषों के पास बैठें, सत्संग करें। (३) अश्लील साहित्य कभी न पढ़ें।
१६७. जो कच्ची सामग्री होती है वह तो जो होती है वही होती है, उसमें से क्या बनाना है, यह बात निर्माता पर निर्भर करती है।
१६८.
८. मनुष्य जितना असत् को जानने और त्यागने में स्वतंत्र है उतना किसी विशिष्ट कर्तव्य का निर्णय करने में समर्थ नहीं है।
१६९. साधक को चाहिये कि वह अपने को कभी भोगी या उसमें सदा यह जागृति रहनी
संसारी व्यक्ति न समझे
चाहिये कि मैं साधक हूँ
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१७०. मनुष्य सांसारिक वस्तु व्यक्ति से जितना अपना सम्बन्ध मानता है उतना ही वह पराधीन हो जाता है। १७१. समय, समझ, सामग्री और सामर्थ्य इन चारों को अपने में लगाना इनका सदुपयोग हैं, पर में लगाना दुरूपयोग है।
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