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कार्य का होना - तत्समय की योग्यतानुसार है।
जीवों का परिणमन, अपनी-अपनी पात्रतानुसार है। १३४.मोह के सद्भाव में - अनिष्ट की शंका कुशंका होती।
है । राग के सद्भाव में इष्ट अनिष्ट के संकल्प विकल्प होते हैं। देष के सद्भाव में क्रोध घृणा-बैर
विरोध होते हैं। १३५.विचारवान पुरुष के लिये अपने स्वरूपानुसन्धान
में प्रमाद करने से बढ़कर और कोई अनर्थ नहीं है क्योंकि इसी से मोह होता है - मोह से अज्ञान - अज्ञान से बन्धन तथा बन्धन से क्लेश दुःख की
प्राप्ति होती है। १३६.मुमुक्षुपुरूष के लिये आत्म तत्व के ज्ञान को छोड़कर
संसार बन्धन से छूटने का और कोई मार्ग नहीं है। १३७.दुःख के कारण और मोहरूप अनात्म चिन्तन को
छोड़कर आनन्द स्वरूप आत्मा का चिन्तन करो जो
साक्षात् मुक्ति का कारण है। १३८.आज इन्सान है पर इन्सानियत नहीं है, शिक्षा है
पर सदाचार नहीं है। १३१.इस समय शिक्षक शिक्षार्थी और शिक्षा यह तीनों
अंग आत्मस्वरूप चरित्र से विमुख हैं। १४०.आज शिक्षा का उद्देश्य जीविकोपार्जन हो गया है। १४१.पाप वही है जिसके परिणाम में अपना तथा दसरे का
अहित हो, पुण्य वही है जिसके परिणाम में अपना
तथा दूसरों का हित हो। १४२.मन में दुर्भाव उत्पन्न होते ही अशान्ति हो जाती है।
तथा सद्भाव होते ही शान्ति होने लगती है।
F१४३. हृदय के भाव छह बातों से परिलक्षित होते हैं - वचन,
बुद्धि, स्वभाव, चारित्र, आचार और व्यवहार। १४४.बेड़ी चाहे लोहे की हो या सोने की-बन्धन कारिणी
तो दोनों ही हैं, अत: शुभाशुभ सभी कर्मों का क्षय
होने पर ही मुक्ति होती है। १४५.कर्मक्षय तो ज्ञानमयी अनाशक्ति से ही होता है -
कर्म से, संतति उत्पन्न करने से या धन से मुक्ति
नहीं होती - वह तो आत्म ज्ञान से ही होती है। १४६.स्व का स्वरूप समझिये - आध्यात्मिक गुरू के
निर्देशन में धार्मिक ग्रन्थों का अनुशीलन कीजिये
श्रवण-मनन-के लिये कुछ समय निकालिये। १४७.जप स्मरण तत्व चर्चा करने से ज्ञान - ध्यान की
सिद्धि होती है, उत्तम आचरण स्वतः होने लग
जाता है। १४८.जीवन को सुखमय मधुर बनाइये, इसके लिये दूसरों
के अनुकूल समभाव में रहिये, थोड़ी से नम्रता, थोड़ा सा धैर्य, थोड़ी सी उदारता - दयालुता - असहायों
के प्रति करूणा और त्याग कीजिये। १४१.यह दुःख तो मेरे भाग्य दोष से मिला है अपने किये
का फल सबको भोगना पड़ता है, यह चिंतन ही
समता में रखता है। १५०.छलछद्म - पाखंड वृत्ति द्वारा दसरे को ठगने वाला
समाज का कलंक होता है। १५१.चारित्र की भित्ति पर ही अध्यात्म का भव्य भवन
खड़ा किया जा सकता है। चारित्रहीन व्यक्ति अध्यात्म का रसास्वादन कभी नहीं कर सकता है।
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