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११५.भेदज्ञान - इस शरीरादि से भिन्न मैं एक अखंड
अविनाशी चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूँ यह
शरीरादि मैं नहीं और यह मेरे नहीं। ११६.तत्व निर्णय-जिस समय जिस जीव का जिस द्रव्य
का जैसा जो कुछ होना है वह अपनी तत्समय की योग्यतानुसार हो रहा है और होगा,उसे कोई भी टाल
फेर बदल सकता नहीं। ११७.भेदज्ञान तत्व निर्णय करने से वर्तमान जीवन सुख
शान्ति मय होता है और इसी से सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होती है, जो मुक्ति का
कारण है। ११८.शरीर का दुरुपयोग - पाप-विषय-कषाय में रत
रहना है, जिससे वर्तमान जीवन दुःखमय और भविष्य
अन्धकारमय बनता है। १११.शरीर का सदुपयोग, सदाचार, संयम, तप, दया,
दान परोपकार करने में है, जिससे वर्तमान जीवन सुखमय यशस्वी बनता है और भविष्य में सद्गति
और मुक्ति मिलती है। १२०.पुण्य के उदय का दुरूपयोग - अन्याय, अनीति,
अत्याचार, अय्याशी करने में है, जिसका परिणाम
दुःख और दुर्गति है। १२१.पुण्य के उदय का सदुपयोग दया, दान, परोपकार,
धर्म प्रभावना, सत्यता, ईमानदारी का व्यवहार करने में है, जिसका परिणाम सुख-शान्ति यश
सद्गति है। १२२.तन से सेवा कीजिये, मन से भले विचार, धन से इस
संसार में करिये पर उपकार, यही है मानवता का सार। VA १२३.मानुष तो विवेकवान, नहीं तो पशु के समान। T १२४.आयु का अन्त, आयु का बंध, पाप का उदय हमारे "
जीवन में कभी भी आ सकता है फिर हम चाहते हुये
भी कुछ नहीं कर सकते। १२५.इमिजानि, आलसहानि, साहसठानि यह सिख
आदरो। जब लों न रोग जरा गहे,तब लों झटिति निजहित
करो। १२६.आगाह अपनी मौत का कोई वसर नहीं।
सामान सौ बरस का है पल की खबर नहीं । १२७.हाथ का पक्का, लंगोट का सच्चा, मुख का संयमी
जग जीतता है। १२८.जीव की दुर्दशा के तीन कारण- १. कर्ता धर्तापना
२. अच्छा बुरा मानना ३.कुछ भी चाहना। १२१.तीन पांच मत करना, वरना मारे जाओगे।
संसार में तीन मिथ्यात्व, पांच पाप करोगे तो दर्गति जाओगे। तीन रत्नत्रय - पांच परमेष्ठी पद धारण
करोगे तो मुक्ति पाओगे। १३०.आत्म कल्याण के बाधक कारण - विवेकहीनता,
लोकमूढता पंथ व्यामोह और साम्प्रदायिकता। १३१.आवश्यकता से आकुलता होती है - समस्या से
विकल्प होते हैं - जिम्मेदारी से चिन्ता होती है। १३२.जितनी अपनी आवश्यकतायें कम होंगी उतने ही
निराकुल आनन्द में रहोगे। १३३.संसार का परिणमन - काल के अनुसार है।
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