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नित रहे मेरी तत्व दृष्टि, मूढ़ता को मैं तजूं ।। तत्वार्थ के निर्णय सहित, स्व समय को मैं नित भजूं।॥२३॥ निज गुणों को, पर औगुणों को, मैं सदा ढकता रहूँ। गर हो किसी से भूल तो भी, मैं किसी से न कहूँ ॥ कामादि वश गर कोई साधर्मी, धरम पथ से डिगे। तो मैं करूं वह कार्य जिससे, फिर सुपथ में वह लगे॥२४॥ मैं करूं स्थित स्वयं को भी, मोक्ष के पथ में प्रभो। साधर्मियों से नित मुझे,गौ वत्स सम वात्सल्य हो। व्यवहार में जिन धर्म की, मैं करूं नित्य प्रभावना। बहती रहे मम हृदय में, सु विशुद्ध आतम भावना ॥२५॥
अष्टांग सम्यग्दृष्टि के, नि:शंकितादि जो कहे। अष्टांग सम्यक्ज्ञान मय, ज्ञानी सदा निज में रहे। पांचों महाव्रत समिति पांचों, गुप्तियां त्रय आचरूं। इन पचहत्तर गुण पुंज से, देवत्व पद प्राप्ति करूं ॥१८॥ जब तक करूं अरिहन्त, सिद्धों का गुणों से चिन्तवन। निज आत्मा की साधना, मैं करूंआराधन मनन ॥ तब तक इसे व्यवहार पूजा, कही श्री जिन वचन में। यह वह कुशल व्यवहार है,जो हेतु निज अनुभवन में॥१९॥ अरिहन्त को जो, द्रव्य गुण पर्याय, से पहिचानता। निश्चय वही निज देव रूपी,स्व समय को जानता॥ सुज्ञान का जब दीप जलता है, स्वयं के हृदय में। मोहान्ध टिक पाता नहीं, आत्मानुभव के उदय में॥२०॥ मैं मोह रागादिक विकारों से, रहित अविकार हूँ। ऐसी निजातम स्वानुभूति मय, समय का सार हूँ। यह निर्विकल्प स्वरूप मयता, वास्तविक पूजा यही।
जो करे अनुभव गुण पचहत्तर,से भविकजन है वही॥२१॥ पूजा का महत्व और सम्यक्त्व के आठ अंग इस भाव पूजा विधि से, होता उदय सम्यक्त का। अष्टांग अरू गुण अष्ट सह,पुरूषार्थजगता मुक्ति का॥ मुझको नहीं शंका रहे, जिन वचन के श्रद्धान में । मैं सकल वांछा को तजूं, ज्ञायक रहूं निज ज्ञान में ॥२२॥ जो वस्तु जैसी है सदा, वैसी रहे त्रय काल में । किससे करूं ग्लानि घृणा, क्यों पडूं इस जंजाल में॥
निरतिचार सम्यक्त्व पालन की भावना
शंका नहीं कांक्षा नहीं अरू,न ही विचिकित्सा धरूं। मैं अन्य दृष्टि की प्रशंसा, और न स्तुति करूं॥ अतिचार भी न लगे कोई, मुझे समकित में कभी। समकित रवि के तेज में, यह दोष क्षय होवें सभी ॥२६॥
सम्यक्त्व के आठ गुण मय भाव पूजा
संवेग हे प्रभो ! अब मैं न पडूं, संसार के जंजाल में। मुझको भटकना न पड़े,जग महावन विकराल में। आवागमन से छूट जाऊँ, बस यही है भावना। संवेग गुण मय करूं पूजा, धारि चतु आराधना ॥२७॥
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