________________
की विधि
मैं एक दर्शन ज्ञानमय, शाश्वत सदा सुख धाम हूँ । चैतन्यता से मैं अलंकृत, अमर आतम राम हूँ ॥ संसार में बस इष्ट मेरा, यही शुद्ध स्वभाव है। जो स्वयं में परिपूर्ण है, जिसमें न कोई विभाव है ॥७॥ चिन्तामणी सम स्वयं का, चैतन्य तत्व महान है। निज का करूं मैं चिन्तवन, निज का करूं श्रद्धान है ॥ शुद्धात्मा ही देव है जो गुण अनन्त निधान है। मैं स्वानुभव में देख लूं, आतम स्वयं भगवान है ॥८॥
..
पूजा
जो हैं विचक्षण योगिजन कर योग की निस्पंदना ।
'.
ओंकार मयी ध्रुव धाम की, करते सदा वे वन्दना ॥ पर से हटा उपयोग को, करते निजातम अनुभवन । इस तरह होता है प्रभु, अरिहन्त सिद्धों को नमन ॥ ९ ॥ अध्यात्म भक्ति करके ज्ञानी, आत्मा को जानते । जो देव निज शुद्धात्मा, निश्चय उसे पहिचानते ॥ अपने ही शुद्ध स्वभाव में, ज्ञानी रमण करते सदा । चिद्रूप में तल्लीन हो, पाते परम शिव शर्मदा ||१०|| ज्ञानी परम ध्यानी स्वयं में लीन कर उपयोग को । निज का ही करते अनुभवन, तजकर सकल संयोग को ॥ जिनवर कहें ज्ञानी वही, जो जानते इस मर्म को ।
वे प्राप्त करते हैं महा महिमा मयी जिन धर्म को ॥११॥ अरिहन्त सिद्धों सम स्वयं शुद्धात्मा प्रत्यक्ष है । यह स्वानुभूति गम्य है, निज में रखूं, दृढ़ लक्ष्य है ॥
"
13
सत देव पूजा करूं मैं, पा जाऊँ सिद्धि की निधि । उपयोग को निज में लगाना, देव पूजा की विधि ॥१२॥
.
निश्चय सु पूजा है यही मंगलमयी सुखवर्द्धिनी । इससे प्रगटता सिद्ध पद, आनन्द वृद्धि षट् गुणी ॥ व्यवहार से पद देव प्राप्ति हेतु जो साधन कहे।
.
मैं करूं वैसी साधना, उस भावना में मन रहे ||१३||
व्यवहार पूजा का स्वरूप अरिहन्त सिद्धाचार्य अरू, उवझाय मुनि महाराज हैं।
यह पंच परमेष्ठी परम गुण, आत्मा के काज हैं ॥ निज आत्मा में ही प्रगटते, देव के यह गुण सभी। पर में करो अन्वेषणा, निज गुण मिलेंगे न कभी ॥१४॥ सम्यक् सुदर्शन ज्ञान चारित, मयी है निज आत्मा । पहिचानते ज्ञानी इसे, नहिं जानते बहिरात्मा ॥ निज आत्मा को छोड़, पर में रत्नत्रय मिलते नहीं । जड़ में कभी चैतन्य के, सुन्दर कमल खिलते नहीं ॥१५॥
चतुरानुयोगों और जिनवाणी, मयी निज आत्मा । है स्वयं केवलज्ञान मय सर्वज्ञ निज परमात्मा ॥ सम्यक्त आदि अष्ट गुण मय, सिद्ध सम है आत्मा । सोलह जु कारण भाव से, प्रगटे सुपद परमात्मा ॥ १६ ॥ होता इन्हीं भावों से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध है। इस अर्थ में शुभ रूप है, पर आत्मा निर्बन्ध है ॥ उत्तम क्षमा आदि कहे, व्यवहार से दश धर्म हैं। इनका धनी निज आत्मा, यह जिन वचन का मर्म है ॥१७॥
14