SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ *तारण-पाणी जिनेन्द्र हो जाता है। जो तेरे अनुपम वीर्य को जानता है वह स्वयं समभावधारी परमात्मा जिनवर हो सिद्ध-गति को चला जाता है । हे पात्मप्रभू, तेरी जय हो । इस स्तोत्र के सम्बन्ध में श्री प्र० शीतलप्रसाद जी लिखते हैं कि इस स्तोत्र में प्रात्मा. सधन की बहुत ही बढ़िया भावना है। हमें उचित है कि हम परमात्मा के स्वभाव को ठीक ठीक जानें । उनके गुणों को पहचानें, उनके साथ अटल प्रेम करें। यह भावना उत्पन्न करें कि यह संसारवास असार, दुःख-धाम है । जिस तरह तीर्थकर संसार से उदास होकर व मोक्षमार्ग पर चलकर परमात्मा हुये और मोक्ष में पधारे हैं उसी तरह हमको भी वैराग्यवान होकर मोक्ष-मार्ग पर चलकर परमात्मा पद प्रगट करना चाहिये, जिससे अविनाशी मोक्ष का लाभ हो और कभी भी फिर संसार का भ्रमण न हो । मोक्ष-मार्ग भी निश्चय से अपने ही आत्मा का रमण व स्वानुभव है । निश्चयनय के द्वारा अपने द्रव्य स्वभाव ( प्रात्मस्वभाव ) का मनन, चितवन, पाराधन, ध्यान ही कर्म-कलंक जलाने को एक योगरूप यज्ञ है । जो इस यज्ञ के भीतर कर्मों का होम करता है वह आत्मशुद्धि कर मुक्ति को पाता है। इस मोक्षमार्ग के माराधन में प्रात्मानन्द का स्वाद आता है, यह कष्टप्रद बिलकुल नहीं है, यह आनन्द का स्वाद देता है, इसी से अनन्त सुख हो जाता है। श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने समयसार में कहा है- मैं एक हूँ. अकेला हूँ, निश्चय से शुद्ध हूँ, मेरा कोई साथी नहीं है, मैं झान-दर्शन स्वभाव से पूर्ण हूँ। इसी अपने स्वभाव में ठहरा हुआ उसी का अनुभव करता हुना मैं सर्व कर्मों का क्षय करता हूँ, यह भावना करनी योग्य है।" __ "तात्पर्य यह कि अपनी आत्मा में परमात्मा की आराधना करना ही प्रात्मा को परमात्मा बनाने का साधन है। यहो सिद्धांत भी कुन्दकुन्द स्वामी का था व यही सिद्धांत श्री तारण तरण सामी का था कोई भी रचमात्र भेद न था। आत्म-भावना ही प्रात्म-विकास का तथा पात्मज्ञान ही केवलज्ञान होने का कारण है। अतः आत्मज्ञान के द्वारा आत्म-भाराधना ही करना चाहिये ।" अन्तरंग उपदेश मैं तो अपने उवनपै माईगी रत्नी, मैं तो अपने उवनपै माहूंगी रही श्री तारण स्वामी की अपनी बुद्धि अथवा प्रत्येक ही सम्यग्दृष्टि-ज्ञानी पुरुष की अपनी बुद्धि कहती है कि मैं तो अपने उवनपै अर्थात् अन्तरात्मा में उत्पन्न हुए विचार-उपदेश पर ही, मागी रनी अर्थात् दृढ़तापूर्वक चलूँगी। भरहत के उपदेश में मोक्षमार्ग का संकेत मात्र मिलता है, जबकि सम्यग्दृष्टि-ज्ञानी पुरुष के भीतर उसको अपनी अन्तरात्मा से उत्पन्न हुए उपदेश-विचारधारा में मोक्षमार्ग ही मिलता है । इसी तरह भरहत के उपदेश में मोक्ष-सुख का वर्णन मात्र ही
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy