SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तारण-वाणी [ ५ 1 रहना अच्छा परम सुखदाई लग रहा है; यह सुख प्रगट जिनेन्द्र होकर अनन्त सुख का भोग कराएगा । तेरा चेतना गुण अच्छा लगता है, यही चेतना गुण प्रगट जिनेन्द्र होकर चेतनानन्द की कांकी बना देगा ||१०|| हे आत्म जिनेन्द्र ! तेरा आनन्दामृत परम शोभनीक है। इसी का पान करते हुए तू प्रगट जिनेन्द्र होकर स्वयं रस- आनंदामृत का पान करते हुये करोड़ों मानवों को इसे पिलायेगा | तेरा आत्म- प्रकाश तुझे परमात्म-प्रकाश प्रदान करेगा और तू प्रगट जिनेन्द्र होकर सूर्य को भी लज्जित करेगा ||११|| हे आत्म प्रभु ! सूर्य स्वभाव अच्छा लगता है । तेरा यह सूर्य स्वभाव अनुभव - प्रकाश के बल से केवलज्ञान - सूर्य को प्रगट कर देगा। तेरा अनुभव परम प्रिय है, यही अनुभव वीतरागता की वृद्धि करता हुआ तुझे परम वीतरागी बना देगा ||१२|| हे हृदय विराजित भगवन् ! तेरा परभावों से शून्य स्वभाव परमप्रिय है कि जिसके द्वारा सहज में ही प्रगट जिनेन्द्र होकर मोक्षवासी हो जायगा । तेरा कमल समान प्रफुल्लित स्वभाव परम शोभायमान है, यही प्रफुल्लित स्वभाव प्रगट जिनेन्द्र बना देगा ||१३|| हे आत्मप्रभू ! तेरा स्वात्मानुभव सुहाता है । तेरा यह स्वात्मानुभव ही तुझे परम जिन बना देगा | तेरा यह स्वात्मानुभव अपूर्व है जो अब प्रगट हुआ है; यहो तुझे परम जिन बना देगा ||१४|| हे भाई ! पांचों परमेष्ठियों की पदवी से विभूषित हीरे के समान चमकने वाली आत्मा का तुम भी आराधन करो, और उसी के कहे अनुसार आचरण करो । हे भाई ! वह उत्कृष्ट समभाव को धारण किए हुए स्वभाव से जिनेन्द्र पद को धारण किए है, उसी में ज्ञान - लक्ष्मी-सम्पन्न वीर भगवान् झलक रहे हैं ||१५|| हे आत्म - जिनेन्द्र ! तेरी वाणी श्रेष्ठ है, जो तेरी वाणी से प्रेम करता है, उसका मनन करता है, उसमें आचरण करता है वह उस चारित्र को प्रगट कर अपने जिनराज के स्वभाव में रमण करने लग जाता है । हे आत्मप्रभु ! तेरा ज्ञान-प्रकाश अपूर्व स्वरूप है । जो इसे समझता है वह स्वयं ही जिन होकर सहज रूप से अपने प्रकाश में रम जाता है ||१६|| हे आत्म-प्रभू ! मैं तेरे कमल स्वभाव रूप से प्रेम कर रहा हूँ, जो तेरे इस वीतराग चारित्र में चलता है वह स्वयं जिनपद प्रगट करके उसी में रमण करने लग जाता है । जो तेरे अपने परमात्म-पद से प्रेम करता है वह अपने अतीन्द्रिय भाव का अनुभव करके स्वयं ही जिन से जिनवर हो जाता है, अनुभव का ऐसा ही महात्म्य है ||१७|| हे हृदयस्थ भगवन् प्रभू ! जो तुझसे प्रेम करता है वही गुणस्थानों पर चढ़ता हुआ अपने अनुभव की वृद्धि द्वारा स्वयं जिनेन्द्र हो जाता है । और अपने तारण तरण अरहन्त पद को प्रगट करके कमल समान अपने जिनवर पद में शोभायमान हो जाता है ||१८|| हे भात्म प्रभू ! जो तेरे-अपने स्वात्म - रमणरूप चारित्र से प्रेम करता है, वह समभाव के साथ आत्मा को ध्याता हुआ स्वयं अपने परमात्म पद को प्रगट कर जिनवर हो जाता है। जो तेरे में तन्मय होकर श्रात्म-ध्यान करता है वह शुद्धात्मा रूपी कमल का आचरण कर जिनपद से जिनवर पद में रमण करने लगता है ||१६|| हे आत्म-प्रभू ! जो तेरे धर्म से प्रेम करता है वह कर्मों को जीतकर अनन्त गुणधारी
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy