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________________ • तारण-पाणी मिलता है जब कि उसकी अपनी अन्तरात्मा के उपदेश में मोक्ष-सुख ही मिलता है। परहंत के उपदेश में संसार की असारता का वर्णन मात्र ही मिलता है, जबकि उसकी अपनी अन्तरात्मा के उपदेश में संसार की प्रसारता प्रत्यक्ष ही दृष्टि-गोचर होने लगती है। परहन्त के उपदेश में प्रात्मानद का वर्णन मात्र मिलता है, जबकि उसकी अपनी अन्तरात्मा के उपदेश में वह भात्मानन्द साक्षात मिलता है। इस तरह मोक्षमार्ग, मोक्ष-सुख, संसार की प्रसारता और प्रात्मानन्द इन सभी बातों का जो भी उपदेश श्री अरहंत भगवान के द्वारा दिया गया धर्म-प्रन्थों से मिलता है वह केवल कथन एवं संकेत मात्र ही मिलता है, जबकि सम्यग्दृष्टि हानी पुरुष की अपनी अन्तरात्मा से उत्पन्न हुए उपदेश में उपरोक्त चारों बातें उसे प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त हो रही हैं। इसी लिए वह कहता है कि अब तो मैं इस पर दृढ़तापूर्वक चलूँगा। परहन्त का उपदेश मानों चलने की विधि मात्र बताने वाला है, जबकि उसके उस अन्तरंग उपदेश में वह स्थान उसे प्राप्त हो गया है-मिल गया है। इतना अन्तर है । भात्मकल्याण के लिये अरहन्त का उपदेश उदासीन कारण होता है, जब कि सम्यग्दृष्टि हानी पुरुष का अपना अन्तरंग उपदेश समर्थ कारण होता है जो कि उसे नियम से पार कर देता है। भगवान अरहंत का उपदेश साक्षात् उनके ही द्वारा भनेक जन्मों में अनेक बार हमने सुना होगा । तथा उनका वही उपदेश गुरुओं के मुखारविंद से हजारों बार सुना होगा और धर्मग्रंथों में लाखों बार पढ़ा होगा। परन्तु, अंतरंग उपदेश के बिना संसार में ही भटकते रहे और जबतक अंतरंग उपदेश नहीं मिलेगा भटकते ही रहेंगे। जो करोड़ों आत्मायें संसार से पार हो कर मोक्ष गई हैं वे सभी अपने ही अंतरंग उपदेश के द्वारा गई हैं । अतः हमें अपनी प्रात्मा को इस तरह सुपात्र बनाना चाहिये कि वह हमें मोक्ष-मार्ग का उपदेश देने में समर्थ हो जाय । जैनधर्म पूर्ण स्वतंत्र राज्य की घोषणा करता है, उपनिवेश की नहीं। परहंत हमारे राज्य के सम्राट तो क्या सरपंच भी नहीं हैं, हमें अपने प्रात्म-राज्य का पूरा संचालन और सुख-दुख तथा हानिलाम की सारी पंचायतें स्वयं को करना होंगी । उनके नाम-रूप और पुण्य की महिमा से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं। केवल उनके आदर्श गुणों से व उनकी दी हुई शिक्षाओं से-उपदेश से हमारा सम्बन्ध रह गया है। सो भी पूजा--भक्ति-स्तुति के लिए नहीं । केवल इतने भर के लिये कि उन आदर्शों का स्मरण--ध्यान रखते हुए हम अपना सब विचार करें-मार्ग बनायें और उस मार्ग पर चलें । तथा चलते हुए समय पाकर उनकी ही बिल्कुल बराबरी से जा बैठे। इतना हमें पूर्ण अधिकार है । जन्मसिद्ध अधिकार है, उनका दिया हुआ नहीं। समझे तो इतना सब कुछ है। न समझे तो रंक बन कर भीख मांगते हुए अनेक जन्म पूरे कर पाए, यह भी पूरा करके चले जायेंगे । उन्होंने न कभी हमारी भीख मांगने वाली प्रार्थना को सुना है और न कभी सुनना ही है। हम चाहे जेन हों या मजैन । वे भगवान तो सबके है, किन्तु सुनते किसी की नहीं । ऐसा
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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