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________________ • तारण-वाणी. उनका स्वभाव है । हमें बुरा लगे-चाहे भला, इससे भी उन्हें कोई प्रयोजन नहीं। वे तो अपने में मगन हैं । तुम्हें अपने में मगन रहना हो तो तुम्हारी इच्छा, न रहना हो तो तुम्हारी इच्छा ! जाते समय ऐसा वे कह गए थे-सन्देश दे गए थे ।" तारन तरन फूलना 'तारन तरन फूलना-इसमें श्री तारण स्वामी अपनी आत्मा को लक्ष्य करके और ऐसी ही भावना प्रत्येक सम्यक्त्ती आत्मायें करती हैं; करती ही नहीं, प्रत्युत स्वभावत: उत्पन्न होती है। श्री तारण स्वामी कहते हैं-मुझे तारण तरण स्वामी वीर भगवान मिल गए हैं । कहां ? मेरी अन्तरात्मा में । अरे भाई ! वीर भगवान तो मोक्ष पधार गये। नहीं, जो मोक्ष पधार गए वे तो वर्द्धमान स्वामी थे। उन्होंने अपनी वीरता दिखाकर केवलज्ञान प्राप्त कर लिया था, इससे वे 'वीर' पदवी से विभूषित हो गये थे। मुझे जो तारण तरण स्वामी वीर भगवान मिल गये हैं वे तो मेरी एक अकेली आत्मा में क्या सभी आत्माओं में विराज रहे हैं, किन्तु मैंने अथवा जिन मेरे साथियों ने अर्थात् सम्यक्ती मानवों ने उन्हें ढूँढ़ा-पाने का प्रयत्न किया, उन्हें वे मिल गये हैं। जिनको उनसे प्रेम नहीं है उन्होंने न तो ढूँढा ही है और न उन्हें मिले ही हैं । तब हे भाई ! तुम्हारे भीतर मिल जाने पर अब वे क्या कर रहे हैं ? क्या कर रहे हैं ! उन्हें भी कुछ काम करना होता है क्या ? वे तो मुक्ति में रमण करते हुये प्रानन्द-परमानन्द में मग्न हैं और चैन की वंशी बजा रहे हैं। जब वे चैन की वंशी बजाते हैं वह सुन पड़ती है ? हां खूब सुन पड़ती है और जब उसे सुनता हूँ तब इतना आनन्द मग्न हो जाता हूँ कि जिस तरह हरिण वंशी को ध्वनि सुनकर झूमने लगता है । हे भाई ! यह बताओ कि तब तुम उनकी पूजा भक्ति क्या करते हो ? भैया ! उन्हें न तो पूजा प्रिय है न वे भक्ति के भूखे हैं। वे तो एक समभावसमताभाव के प्रेमी हैं। हे भाई ! तब अब वे तुमसे कुछ कहते भी हैं या नहीं ? हां वे वही सब बातें कहते रहते हैं । जो जो बातें श्री वर्धमान स्वामी ने समवसरण में श्री गौतम गणधर, राजा श्रेणिक अथवा इन्द्र से कहीं थीं। तब हे भाई ! तुम उनकी बातों को सुनकर मानते हो या नहीं मानते १ हाँ खूब मानते हैं, एक एक बात को ठीक उमी तरह से मानते हैं कि जिस तरह श्री गौतम गणधर ने श्री वर्धमान स्वामी की एक एक बात मानी थी। अच्छा तो हे भाई ! यह और बताओ कि अब तुम उनकी पाहुनगत कैसी और कब तक करोगे ? भैया ! वे हमारे यहाँ पाहुने बनकर नहीं आए हैं, स्वामी बनकर आए हैं और माए हुए स्वामी को क्या कोई जाने भी देता है ? रही स्वागत वाली बात, सो जैसा स्वागत श्री वर्धमान जिनेन्द्र का इन्द्र ने किया था वैसा ही सब स्वागत मैं भी करूंगा। तथा राजा श्रेणिक ने जैसी भक्ति प्रगट की थी वैसी ही भक्ति करूँगा।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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