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* तारण-वाणी
देकर सुनो कि दर्शन हीन बंदिवे योग्य नहीं ।
भावार्थ-इस उपरोक्त गाथा से बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है जिसमें सम्यग्दर्शन न हो वह बंदिवे योग्य नहीं। हे शिष्य ! इस बात को तुम कान देकर सुन लो।
विशेष-प्रनिमा तो क्या सचेतन प्राणी भी यदि सम्यग्दर्शन हीन है तो वंदिवे योग्य नहीं और यदि सम्यग्दर्शनधारी ऊँच नीच मनुष्य तो क्या देव, नारकी तथा पशु भी क्यों न हो वंदिवे योग्य है। अत: द्रव्यलिंगी साधु तथा प्रतिमा और सम्यग्दर्शन हीन सभी देव, क्षेत्रपाल, पद्मावती देवी इत्यादि अवंदनीय हैं । इस गाथा का यही निष्पक्ष अर्थ है, रञ्चमात्र भी हम अपनी तरफ से यह अर्थ घुमा फिरा कर नहीं लगा सकते कि यह तो मुनिश्री के लिए कहा है प्रतिमा के वावत नहीं कहा कि सम्यग्दर्शन हीन मुनि की वंदना नहीं करना चाहिए. भगवान की प्रतिमा की अथवा जिन' शासन की रक्षक पद्मावती क्षेत्रपालादि की तो करना चाहिये अथवा श्रावकों को तो प्रतिमा की वंदना करना चाहिए, मुनियों को नहीं । यदि हमें श्री कुन्दकुन्द स्वामी के बताए हुए इस सिद्धांत को कि जिसे वह कितनी गढ़ाकर कहते हैं कि कान देकर सुनो कि भगवान ने जो यह हम तुम सभी शिष्यों के लिए उपदेश किया है कि हे शिष्यो! दर्शनहीन वंदिवे योग्य नहीं। अतएव यदि हम सम्यग्दर्शन को प्राप्त करके भवसागर से पार होना चाहते हैं तो हमें आशा, भय, लोभ, स्नेह इन सभी संसारी बातों को छोड़कर श्री कुंदकंद स्वामी द्वारा बताए हुये भगवान जिनेन्द्रदेव के इस उपदेश को मानना चाहिये । क्योंकि सांसारिक कामनाओं की पूर्ति के वशीभूत हुआ आत्माअनादिकाल से भटक रहा है, अब इस मनुष्य जन्म और पाए हुए जैनधर्म को सार्थक करो । सोने में सुगन्धि की भांति यह योग मिला है । यदि प्रतिमा अनादि तथा श्री कुन्दकुन्द स्वामी को मान्य होती तो वे अपनी इस गाथा के आगे वाली गाथा में अपने ग्रन्थ में इसे स्पष्ट कर देते कि भगवान की प्रतिमा वंदनीय है। तथा विशेष आश्चर्य की बात तो यह कि भगवान जिनेन्द्रदेव ही तो यह उपदेश दें कि दर्शनहीन वंदवे योग्य नहीं और वही अपनी प्रतिमा के लिए इसकी छूट कर दें कैसे हो सकता है ? यह तो ऐसी बात है कि हम कहें कि औरों के लिए रात्रिभोजन बनाने में दोष है किन्तु हमारे लिए बनाने में दोष नहीं लगेगा। यह बात तो यदि समझी जाय तो इतने में ही समझ में आ सकती है कि जैनधर्म के मूल उपदेशकर्ता भगवान श्री तीर्थंकर महावीर म्वामी और वे ही अपनी प्रतिमा पूजने की कहते ? यही कारण है कि एक श्री कुन्दकुन्द स्वामी क्या किन्हीं भी प्रमाणीक बड़े बड़े प्राचार्यों ने किन्हीं सिद्धांत ग्रन्थों में इस ( प्रतिमा पूजन ) का समर्थन नहीं किया। यदि उनके समय में यह होती तो वे अवश्य ही सार्थकता का कथन करते जबकि उन्होंने सप्त तत्वों के साथ साथ सूर्य, चन्द्र, प्रह, नक्षत्र, समुद्र, नदी, पर्वत और तीन लोक का सूक्ष्मातिसूक्ष्म वर्णन किया है तो क्या कारण है कि इतनी धर्म प्रधान मानी जाने वाली चीज